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रसप्रकरणम् ]
हतीयो भागः।
[४८१]
श्वेतार्कमृलखक चैव देया माषमिता ततः। मासमात्रन्तु पथ्याशी शाकाम्लदधिवर्जनम् । हिलं तोलकं सार्द्ध सर्वमेकत्र चूर्णितम् ॥ | गुर्वन्नपायसादीनि चाऽपथ्यानि विवर्जयेत् ॥ घृतप्लुतं संविधाय धूपं दद्यायथाविधि। दिनत्रये व्यतीते तु स्नानमुष्णाम्बुना चरेत् । एभिः प्रधूपनं हन्याद् व्रणं लिङ्गसमुत्थितम् ॥ एवं धूमे कृते शान्तिर्बणाश्च पिडिका अपि ।। पारद, हरताल, मनसिल, मुर्दासिंग, सिन्दूर,
तथा शोथश्चामवातः खअता पङ्गुताऽपि च । नीलाथोथा, फटकी, जवाखार, बिडनमक, सुहागा,
कुष्ठोपदंशशान्त्यर्थ भैरवेण प्रकीर्तितः ॥ कालीमिर्च और सफेद आककी जड़की छाल १-१ पारद, बंगभस्म, कत्था, हर्रकी भस्म, केलेके माषा तथा हिंगुल (सिंगरफ) १॥ तोला लेकर | कोमल पत्तोंकी मस्म और सुपारीकी भस्म १-१ सबका एकत्र कूटकर चूर्ण बनावें । इसमें घी | तोला तथा हिंगुल ( सिंगरफ), हरताल, गन्धक, मिलाकर यथाविधि धूप देनेसे लिंगके घाव नष्ट | तूतिया, पद्माक, सरलकाष्ठ ( चीरका बुरादा), हो जाते हैं।
सफेद चन्दन, लाल चन्दन, देवदारु, पतङ्गकी (४३८५) पारदादिधूपः (२)
लकड़ी और हल्दूकी लकड़ी १-१ माशा लेकर
सबको कूटकर चूर्ण बनावें और उसे चूकें तथा (धन्व.; भै. र. । उपदंश.)
तुलसीके पत्तोंके रसमें और गुड़के पानीमें १-१ रसं वङ्गश्च खदिरं हरीतक्याश्च भस्मकम् । रोज़ घोटकर सुखाकर धीमें मिलाकर ६ गोलियां तरुणीकदलीभस्म पूगस्य फलजन्तथा ॥ बनावें । एकतोलकमानं स्यादिङ्गुलं हरितालकम् ।
जिस समय उपदंशके रोगीको अत्यन्त पीड़ा गन्धकं तुत्यकञ्चाऽपि पद्मकं सरलन्तथा। हो रही हो उस समय इनमेंसे १ गोली चार तह द्वे चन्दने देवदारु बकर्म काष्ठमेव च। किये हुवे सफेद वस्त्र में बांधकर निर्धम अग्नि पर तथा केशरकाष्ठश्च माषमान प्रकल्पयेत् ॥ रखें और रोगीको बिस्तर रहित छिद्रयुक्त (बानों एकीकृत्य विचूाऽथ सर्व चाङ्गेरिकाद्रवैः । से बुनी हुई या लोहेके तारोंकी) खाट पर लिटाकर तुलसीपत्रजरसैः पुरातनगुडेन च ॥ उसके नीचे वह अग्नि रख दें एवं रोगीको वस्त्र घृतेन सह षट् कार्या वटिका मन्त्ररक्षिताः। उढ़ा दें । वस्त्र इतना बड़ा होना चाहिये कि रोगी वेदनायामुत्कटायां चतुर्भिः शुक्लवस्त्रकैः ॥ की चारपाईके चारों ओर भूमि तक लटकता रहे वेष्टयित्वा च निघूमाऽङ्गारोपरि प्रदापयेत् । । कि जिससे धूम बाहर न निकल सके । रोगीको तं धूमं प्रतिगृह्णीयानरो वस्त्रादिवेष्टितः ॥ अपना मुख भी वस्त्रसे ढांप लेना चाहिये । इससे मुखनासाकर्णबहिनिःश्वासस्य निरोधनात् ।। उसके शरीरसे पसीना निकलकर रोग नष्ट हो स्वेदे जातेऽस्य नैरुज्यं सायं प्रातर्दिनत्रयम् ॥ ' जायगा ।
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