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भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
[पकारादि
इसी प्रकार ३ दिन तक प्रातः सायं धूम ।
पारदादियोगः लेना चाहिये और १ मास तक पथ्य पालन (र. चं.: र. सा. सं.: वृ. नि. र. । कृमिरो.) करना चाहिये।
___कृमिहरो रसः " सं. १०४६ देखिये। धूम लेनेके दिनोंमें स्नान न करना चाहिये |
(४३८७) पारदादिरसः ( श्वासान्तकरसः ) बल्कि ३ दिन तक धूम लेनेके बाद चौथे दिन मन्दोष्ण जलसे स्नान करना चाहिये।
(र. रा. सुं.; र. चं.; र. र. स. । श्वासा.)
मूतः षोडश तत्समो दिनकरस्तस्यार्द्धभागो इस प्रकार धूम लेनेसे आतशकके घाव, पिडि |
वलिः । का, शोथ, आमवात, खञ्जता, पंगुता और कुष्ठ का सिन्धस्तस्य समः सुमुक्ष्ममृदितः पपिप्पलीनाश हो जाता है।
चूर्णितः॥ इस प्रयोगमें १ मास तक शाक, खटाई, जम्बीरस्वरसेन मर्दितमिदं तप्तं सुपकं भवेत् । दही और दूधपाकादि भारी पदार्थोंसे परहेज़ । कासश्वाससशूलगुल्मजठरं पाण्डु प्लिहं नाशयेत्।। करना चाहिये।
शुद्ध पारा और ताम्रभस्म १६-१६ भाग, (पध्य-घी और बेसनकी लवणरहित रोटी) |
शुद्ध गन्धक ८ भाग, सेंधानमक ८ भाग तथा (४३८६) पारदादियोगः
पीपल ६ भाग लेकर पारे गन्धकको कजली (र. र. । रसायन.)
बनाकर उसमें अन्य ओषधियोंका महीन चूर्ण सूर्त स्वर्ण व्योमसत्त्वं तारं तानं च रोचनम् ।
मिलाकर सबको १ दिन जन्भीरी नीबूके रसमें बीजं वै शरपुत्रायाः कृष्णधत्तूर बीजकम् ॥
घोट लीजिये। फिर उसका गोला बनाकर उसे अरण्ड सर्व मधे वटक्षीरैः कुबेराक्षस्य बीजके।
इत्यादिके पत्तों में लपेटकर पुटपाक विधिसे पकाइये तक्षिप्ता धारयेद्वको वीर्यस्तम्भकरं चिरम ॥ और उसे पीसकर सुरक्षित रखिये। ___ शुद्ध पारा, स्वर्णभस्म, अभ्रकसत्व, चांदी- इसके सेवन से ग्वांसी, स्वास, शूल, गुल्म, भस्म, ताम्रभस्म, गोरोचन तथा सरफोंके और काले उदररोग, पाण्डु और तिल्लीका नाश होता है ! धतूरे के बीज समान भाग लेकर प्रथम पारे और ( मात्रा-२ रत्ती।) भस्मों को मिलाकर घोटें फिर उसमें अन्य ओष
नोट--पुटपाक करनेकी विधि भा. भै. र. घियोंका चूर्ण मिलाकर सबको बड़के दूधके साथ । घोटकर गोलियां बना लें।
भाग १ के पृष्ठ ३५३ पर देखिये । इनमेंसे १-१ गोली करञ्जके फलमें रखकर
पारदादिलेपः मुंहमें रखनेसे बहुत देर तक वीर्यस्तम्भन होता है। लेपप्रकरणमें देखिये।
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