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कषायप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[५६१]
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बृहत्यादिगणः शस्तः सनिपाते कफोत्तरे। निम्बाहकोशातकिहारहूरा श्वासादिषु च सर्वेषु हितः सोपद्रवेष्वपि ॥ द्विपञ्चमूलीभिरसौ कषायः॥
कटेली, पोखरमूल, भरंगी, कचूर, काकडा- पीतो हि चित्तभ्रमसन्निपातं सिंगी, धमासा, इन्द्रजौ, परवल और कुटकी । इन
निहन्ति रुग्दाहमपि प्रभूतम् ॥ ओषधियोंके समूहको 'बृहत्यादिगण' कहते हैं। ब्राह्मी, बच, खस, हर्र, बहेड़ा, आमला ,कुटकी, इनका काथ कफप्रधान सन्निपात तथा श्वासादि खरैटी, अमलतास, चिरायता, नीमकी छाल, कड़वी में हितकर है।
तोरी, मुनक्का और दशमूलका कषाय पिलानेसे (४६०६) वृहत्यादिगणः (२) | चित्तभ्रम तथा रुग्दाह नामक सन्निपात नष्ट (सु. । सूत्रस्थान अ. ३८)
होते हैं। बृहतीकण्टकारिका कुटजफलपाठामधुकं चेति। (४६०८) ब्राहयादिस्वरसयोगः पाचनीयो बृहत्यादिर्गणः पित्तनिलापहः॥ । (वृ. मा.; यो. र.; वृ. नि. र. । उन्माद.; शा. ध. कफारोचकहल्लासमूत्रकृच्छ्रुजापहः ॥
सं. । खं. २ अ.१) बड़ी कटेली, छोटी कटैली, इन्द्रजौ, पाठा और
ब्राह्मीकूष्माण्डीफलपड्ग्रन्थाशङ्खपुष्पिकास्वरसाः मुलैठी। इन ओषधियों के समूहको 'बृहत्यादिगण'
दृष्टा उन्मादहराः पृथगेते कुष्ठमधुमिश्राः ॥ कहते हैं । इनका काथ पित्त, वायु, कफ, अरुचि,
ब्राह्मी, पेटा, बच, और शंखपुष्पी । इनमें से हलास ( जी मचलाना) और मूत्रकृच्छूको नष्ट
| किसी एकके रसमें कूठका चूर्ण और शहद मिलाकरता है।
कर पिलानेसे उन्माद नष्ट होता है। (४६०७) ब्राह्मयादिक्काथ:
( स्वरस ५ तोले । कूटका चूर्ण १॥ माशा। (वृ. नि. र.; यो. र. । सन्निपात.)
शहद २ तोले ।) ब्राह्मीवचाभीरुफलत्रिकेण तिक्तावलारग्वधतिक्तकेन ।
योगरलाकरमें इस प्रयोगमें नागरमोधा अधिक है।
इति बकारादिकषायप्रकरणम् ।
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