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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[वकारादि
(पुटपाक करनेकी विधि भारत भै. र. भाग लेकर काथ बनाकर पिलानेसे भयङ्कर पित्तज शूल १ में पृष्ठ ३५२ पर देखिये ।)
| भी तुरन्त नष्ट हो जाता है । (४५९९) बृहणीयमहाकषायः
(४६०२) बृहत्यादिक्काय: (३) (च. सं. । सूत्रस्था. अ. ४) (ग. नि.; . यो. त. : त. १००; . नि. क्षीरिणी राजक्षवर्क बला काकोली क्षीरका-1 २. व. स.; वृ. मा.; यो. र. । मूत्रकृच्छ्) कोली वाट्यायनी भद्रौदनी भारद्वाजी बृहतीधावनीपाठायष्टीमधुकालिङ्गकान् । पयस्यर्ण्यगन्धा इति दशेमानि ईहणीयानि पक्या काथं पिबेन्मयो कृच्छ्रे दोपत्रयोद्भवे ॥ भवन्ति ॥
कटेली, पृश्निपर्णी, पाठा, मुलैठी और इन्द्रक्षीरलता, दद्दी, खरैटी, काकोली, क्षीरकाको- | जोका काथ त्रिदोषज मूत्रकृच्छूको नष्ट करता है। ली, महाबला, नागबला (गुलशकरी), बनकपास, | (४६०३) बृहत्यादिकायः (४) बिदारीकन्द और विधारा ।
(च. सं. । अ. ३) इन दश ओषधियोंका समूह बृहणीयमहा / वृहत्यौ वत्सकं मुस्तकं देवदारु महौषधम् । कषाय कहलाता है । अर्थात वीर्य वर्द्धक ओषधि- कोलवल्ली च योगोऽयं सन्निपातज्वरापहम् ॥ यमेिं ये ओषधियां मुख्य हैं।
__छोटी और बड़ी कटेली, कुडेको छाल, नागर (४६००) बृहत्यादिकायः (१) मोथा, देवदारु, सेांठ और गजपीपल ( या चव)
(वं. से.; वृ. मा.; वृ. नि. र. । मुखरो.) का काथ सन्निपात ज्वरको नष्ट करता है। बृहतीभूमिकदम्बकपश्चाङ्गलकण्टकारिकाकायः। (४६०४) बृहत्यादिकाय: (५)
__(व. से.; ग. नि. । चरा.) गण्डूषस्तैलयुतः कृमिदन्तकवेदनोपशमः ॥ ___ बनभंटा, भूमिकदम्ब, अरण्डमूल और कटेली |
| बृहती पीकर भाणि शटी शृशी दुरालभा।
पक्वा पानं प्रशंसन्ति श्लेष्मा तेनोपशाम्पति॥ के काथमें तैल मिलाकर उसके कुल्ले करनेसे कृमिदन्त की पीड़ा नष्ट होती है।
कटेली, पोखरमूल, भरंगी, शठी ( कचूर ),
काकडासिंगी और धमासा । इनका काथ कफको (४६०१) बृहत्यादिकाय: (२)
नष्ट करता है । यह काथ ज्वरमें उपयोगी है। (वृ. मा. । शूला.; यो. र. । शूला.)
(४६०५) वृहत्यादिगणः बृहत्यौ गोक्षुरैण्डकुशकाशेक्षुबालिकाः।
(भा. प्र. । ज्वरा; व. से.; वृ. मा.; च. द.; ग. पीताः पित्तभवं शूलं सधो हन्युः सुदारुणम् ॥ नि.। ज्वरा.; च. सं. । अ. ३) __ छोटी और बड़ी कटेली, गोखरु, अरण्डकी । बृहती पौष्करं भाी शठी शृङ्गी दुरालभा। ड, कुश, कांस और तालमखाना समान भाग 'वत्सकस्य तु बीजानि पटोले कटुरोहिणी ॥
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