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तैलप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[१९७]
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गाप्रशोषेन्द्रियध्वंसे असृक्शुक्रे ज्वरे क्षये ॥ । नष्ट होना, शुक्रके साथ रक्त आना, ज्वर, क्षय, अण्डवृद्धिकुरण्डश्च दन्तरोग शिरोग्रहम् । अण्डवृद्धि, दन्तरोग, शिरोग्रह, पसलीका दर्द, पार्श्वशूलश्च पाङ्गुल्यं बुद्धिहानिश्च गृध्रसीम् ॥ पङ्गुता, बुद्धि की मन्दता, गृध्रसी, तथा अन्य कष्टअन्यांश्च विषमान्यातान् जयेत्सर्वाङ्गसंश्रयान् ।
साध्य वातज रोग नष्ट होते हैं । इसके प्रभावसे अस्य प्रभावाद्वंध्यापि नारी पुत्र प्रसूयते ॥
वन्ध्या स्त्रीके भी पुत्र उत्पन्न होता है । इसकी मर्यो गजो वा तुरगस्तैलाभ्यङ्गात्सुखी भवेत् ।
मालिश न केवल मनुष्योंके लिए अपितु हाथी यथा नारायणो देवो दुष्टदैत्यविनाशनः॥
और घोड़ों के लिये भी हितकारी है। तथैवं वातरोगाणां नाशनं तैलमुत्तमम् ॥
(३५०३) नारायणतलम् (मध्यम) (३) ___ असगन्ध, खरैटी, बेलछाल, पाढल, कटेली, ( भै. र. । वा. व्या. ) बड़ी कटेली, गोखरु, अतिबला ( कंघी ), नीमकी बिल्वाश्वगन्धाहतीश्वदंष्ट्रा छाल, सोनापाठा ( अरल ), पुनर्नवा, प्रसारिणी,
श्योनाकवाटचालकपारिभद्रम् । और अरनी । हरेक १०-१० पल ( ५०-५० तोले ) लेकर कूटकर सबको १२८ सेर पानीमें
मूलानि चैषां सरणीयुतानाम् ।। पकावें जब ३२ सेर पानी शेष रह जाय तो मूलं विदध्यादथ पाटलीनां काथको छान लें । तत्पश्चात् ८ सेर तिलका तैल, प्रस्थं सपादं विधिनोद्धतानाम् । ८ सेर शतावरका रस, ३२ सेर गायका दूध, और द्रोणैरपामष्टभिरेव पक्त्वा निम्न लिखित कल्क तथा उपरोक्त काथको एकत्र पादावशेषेण रसेन तेन ।। मिलाकर पकावें । जब सैल मात्र शेष रह जाय तैलाढकाभ्यां सममेव दुग्धतो उसे छानकर सुरक्षित रखें।
माजं निदध्यादथ वापि गव्यम् । ____ कल्क-कूठ, इलायची, सफेद चन्दन, एकत्र सम्यग्विपचेत्सुबुद्धिमूर्वा, बच, जटामांसी, सेंधानमक, असगन्ध, खरैटी, दद्याद्रसञ्चैव शतावरीनाम् ॥ रास्ना, सोया, देवदारु, शालपर्णी, पृश्निपणी, तैलेन तुल्यं पुनरेव तत्र मुद्गपर्णी, माषपर्णी और तगर । हरेक १० तोले रास्नाश्वगन्धामिषिदारुकुष्ठम् । लेकर सबको पानीके साथ पीस लें। पर्णीचतुष्कागरुकेशराणि ___ इस तैलकी नस्य लेने, मालिश करने, इसे सिन्धूत्यमांसीरजनीद्वयश्च ।। पीने और बस्ति द्वारा प्रयुक्त करने से पक्षाघात, | शैलेयकं चन्दनपुष्कराणि हनुस्तम्भ, मन्यास्तम्भ, गलग्रह, खालित्य (गंज), एलास्रयष्टीतगराब्दपत्रम् । पधिरता, गतिभङ्ग ( चलते समय पैर अव्यवस्थित भृङ्गाष्टवर्गाम्वचापलाशं । पड़ना ), अंगांका सूखना, इन्द्रियोंकी शक्तिका ! स्यौणेयवृश्चीरकचोरकाख्यम् ॥
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