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तृतीयो भागः ।
कषायप्रकरणम् ]
पारिभद्र ( फरहद) के पत्तों के या टेसू अथवा धतूरेके रसमें शहद मिलाकर पीनेसे कृमि नष्ट होते हैं ।
(३८१६) पाषाणभेदकाथः ( वृ. नि. र. । अश्मरी . ) पीत्वापाषाण भिक्कार्य सशिलाजतुशर्करम् । पित्ताश्मरीं निहन्त्याशु वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ पखानभेदके काथमें शिलाजीत और खांड मिलाकर पीने से पिसज अश्मरी शीघ्र ही नष्ट हो जाती है ।
(३८१७) पाषाणभेदादिकषायः (ग. नि. । मूत्रकृच्छ्र.)
पाषाणभेदो मधुयष्टिरेला
कृष्णाशिफैरण्डसिताटरूषाः । स्पृका स्वदंष्ट्रा च शिवासमेतैः
कायो हरेदुः सह मूत्रकृच्छ्रम् ॥ पखानभेद, मुलैठी, इलायची, पीपलामूल, अरण्डकी जड़, सफेद बासा, स्पृक्का, गोखरु और हर्रका काथ भयङ्कर मूत्रकृच्छ्रको भी नष्ट कर देता है ।
(३८१८) पाषाणभेदादिकाथ : (१) ( वं. से. । अश्मरी. ) पाषाणभेदवरुणगोक्षुरकपोतवङ्गजः काथः । गिरिजतुगुडप्रगाढः कर्कटिकात्रपुसबीजयुक्तः ॥ पेयोssममवश्यं दुर्भेदामपि भिनत्ति योगवरः शिखरिणमिव शतकोटिः शतमन्योईस्तनिर्मुक्तः। पाषाणभेद ( पखान भेद ), बरनेकी छाल, गोवर, और ब्राह्मी । इनके काथमें शिलाजीत
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और ककड़ी तथा खीरे के बीज मिलाकर उसे गुड़से मीठा करके पीनेसे दुर्भेद्य अश्मरी (पथरी) भी अवश्य नष्ट हो जाती है ।
(३८१९) पाषाणभेदादिकाथः (२) ( वृ. नि. र. 1 मूत्रकृ. ) पाषाणभेदकृतमालकघन्वयास
पथ्यात्रिकण्टककषायनिषेवणेन । मध्वन्वितेन सहसा विरहं प्रयाति
रुग्दाहबन्धसहितं किल मूत्रकृच्छ्रम् ॥ पखानभेद, छोटा अमलतास, धमासा, हर्र और गोखरुके काथमें शहद मिलाकर पीनेसे पीड़ा दाह और मूत्रावरोध युक्त मूत्रकृच्छ्र शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।
(३८२०) पाषाणभेदादिकाथ: (३) ( वं. से. ' | अश्म.; वृं. यो. त. । त. १०२; यो र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ . ) पाषाणभिवरुणगोक्षुरकोरुबूक
क्षुद्राद्वयक्षुरकमूलकृतः कषायः । दध्ना युतो जयति मूत्रविबन्धशुक्र
मुग्राश्मरीमपि च शर्करया समेताम् || पखानभेद, बरनेकी छाल, गोखरु, अरण्डकी जड़, कटेली, बड़ी कटेली और तालमखानेकी जड़ । इनके काथमें दही मिलाकर पीने से मूत्रावरोध, शुक्राश्मरी, और शर्करा का नाश होता है। (३८२१) पाषाणभेदादिकाथ: ( ४ ) ( यो. र.; वृ. नि. र. । मूत्रकृ. ) पाषाणभेदस्त्रिष्टता च पथ्या-दुरालभापुष्करगोक्षुरश्च |
१६. से. मे वरुणका अभाव है ।
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