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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२७६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि - - (३८०९) पाठादिकाथ: (६) पाठा, इन्द्रजी, चिरायता, नागरमोथा, पित्त(वं. से. । स्त्रीरो.) पापड़ा, गिलोय और सेठ । इनका काय आमापाठा मूर्वा च भूनिम्बदारुशुण्ठिकलिङ्गकाः। सिसार और ज्वरको नष्ट करता है। शारिवामृततिक्ताख्याः काथः स्तन्यविशोधनः॥ (३८१३) पाठासिरपया पाठा, मूळ, चिरायता, देवदारु, सांठ, इन्द्रजो, | (वै. म. र. । पट. १) सारिया, गिलोय और कुटकी का क्वाथ बालककी पागशिफापयः पीतं प्रातरेव दिनैखिभिः। माता ( या धाय ) को पिलानेसे उसका दूध शीतिका कम्पबहुला नाशयेल्लशुनं तथा ॥ शुद्ध होता है। (३८१०) पाठादिकाथः (७) तीन दिनतक रोजाना प्रातःकाल पाठे की (ग. नि.; वू. मा. । प्रमेह.) जड़को दूधमें पीसकर पीने अथवा लहसन खाने से पाठाशिरीपदुस्पर्शामूर्वाकिंशुकतिन्दुक- कम्पयुक्त शीत नष्ट हो जाता है। (यह योग फपित्यानां भिषक् काथं हस्तिमेहे प्रयोजयेत् ॥ शीतज्वरमें उपयोगी है।) हस्तिप्रमेहमें पाठा, सिरसकी छाल, धमासा, (३८१४) पारिजातादिकाथाष्टकम् मूर्वा, केसू ( टेसू), तेंदु की छाल और कैथ वृक्षकी (वृं. मा. । प्रमेहा.) छाल का काथ पिलाना चाहिये । पारिजातजयानिम्बवहिगायत्रिणांपृथक् । (३८११) पाठादिकाथः (८) | पाठायाः सागुरोः पीता यस्य शारदस्य ।। (भा. प्र.; वृ. नि. र. । ज्वर.) जलेक्षुमधसिकताशनलेवणपिष्टकाः। पागमतापर्पटमुस्तविश्वा सान्द्रमेहान्क्रमाद्घन्ति अष्टौ काया: समा. किराततिक्तेन्द्रयवान् विपाच्य । लिकाः॥ पिवन् हरत्येव हठेन सर्वान् (१) पारिजात (२) जया (३) नीमकी छाल ज्वरातिसारानपि दुर्निवारान् ॥ । (४) चीता (५) खैरसार (६) पाठा और अगर पाठा, गिलोय, पित्तपापड़ा, नागरमोथा, (७) हल्दी (८) दार हल्दी। यह आठ काथ शहद सेठ, चिरायता और इन्द्रजौ इनका काथ भयंकर डालकर पीनेसे क्रमशः उदकमेह, इक्षुमेह, सुरामेह, ज्वरातिसारको भी अवश्य नष्ट कर देता है। सिकतामेह शनैमेह, लवणमेह, पिष्टमेह और (३८१२) पाठासप्तककाथ: सान्द्रमेहको नष्ट करते हैं। (ग. नि.; र. र.; वं. मा.; वं. से.; वृ. नि. र.। (३८१५) पारिमदरसादिप्रयोगः ज्वराति.; वृ. यो त । त. ६५) (वं. से.; . मा.। कृम्यधि.) पाठेन्द्रयवभूनिम्बमुस्तपर्पटकामृताः। पारिभद्रकपत्रोत्यं रस लौद्रयुत पिवेत् । नयन्त्याममतीसारं २ज्वरञ्च समहौषधाः२॥ किंशुकस्य रसं वापि धतूरस्थापि वा रसम् ॥ १-'भृताः' इति पाठान्तरम् । -कम्युक्त्येति पठान्वरम् । २- २ सज्वरं वाऽथ विज्वरमिति पाठान्तरम् ।। २-पररस्वति पान्तरम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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