SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 658
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [६६३] - - जीरा, कालाजीरा, सुहागेकी खील, इलायची, तेज-1 स्वर्णमाक्षिक भस्म, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, पात, लांग, हींग, कुटकी, जायफल और सेंधानमक | शुद्ध हरताल, शुद्ध मनसिल, अभ्रकभस्म, कान्त समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली | लोहभस्म, निसोत, दन्तीमूल, नागरमोथा, चीताबनावें और फिर उसमें भस्में तथा अन्य औषधांका | मूल, सांठ, पीपल, काली मिर्च, हरे, अजवायन, चूर्ण मिलाकर सबको अद्रक, चीता, दन्तीमूल, काला जीरा, हाँग कुटकी,पाठा, संधा नमक,अजमोद, तुलसी, बासा और बेलके पत्तेके स्वरस याकाथकी जायफल और जवाखार समान भाग लेकर प्रथम सात सात भावना देकर ३-३ रत्तीकी गोलियां | पारे गन्धककी कजली बनावें और फिर उसमें बना लें। अन्य औषधांका महीन चूर्ण मिलाकर सबको इनके सेवनसे मलबन्ध, कफप्रधान सन्निपात, धूपमें अद्रक, संभालु, हुलहुल और तुलसीके आम, अग्निमांद्य, विषम ज्वर तथा समस्त प्रकारके स्वरसकी १-१ भावना देकर अच्छी तरह धोटकर शूल नष्ट होते हैं। १-१ रत्तीको गोलियां बना लें। भक्तवारिगुटिका इनके सेवनसे अग्नि प्रदीप्त होती है। (व. से. । परिणाम शूला.) (गुणोंके लिये "भुक्तोत्तरीया वटी” देखिये) पानीयभक्तवटी सं. ४३२५ देखिये । (४९३५) भक्तविपाकवटी | (४९३६) भक्तोत्तरचूर्णम् (भक्तपावकगुटिका) (भै. र. । वृद्धिरोगा.) (रसे. सा. सं.। अजीर्णा.; र. र. । रसायना. | अभ्रकं गन्धकश्चैव पिप्पली लवणानि च । र. च. । अजीर्णा.) त्रिक्षारं त्रिफला चैव हरितालं मनःशिला ।। माक्षिकं रसगन्धौ च हरितालं मनःशिला। पारदं चाजमोदा च यमानी शतपुष्पिका। गगनं कान्तलौहं च सर्वमेषां समांशकम् ॥+ जीरकं हि मेथी च चित्रकं चविका वचा ॥ त्रिवृदन्तीवारिवाहं चित्रकश्च महौषधम् ।। | दन्ती च त्रिता मुस्ता शिला च मृतलौहकम् । पिप्पली मरिचं पथ्या यमानी कृष्णजीरकम् ॥ अञ्जनं निम्बबीजानि पटोलं वृद्धदारकम् ॥ रामठं कटुका पाठा सैन्धवं साजमोदकम् ।। सर्वाणि चाक्षमात्राणि श्लक्ष्णचूर्णानि कारयेत् । जातीफलं यवक्षारं समभागं विचूर्णयेत् ॥ शतं कनकवीजानि शोधितानि प्रयोजयेत् ॥ आर्द्रकस्य रसेनैव निर्गुण्ड्याः स्वरसेन च। एतदनिविद्धयर्थमृषिभिः परिकीर्तितम् । सूर्यावर्त्तरसेनैव तुलस्याः स्वरसेन च ॥ | श्लीपदान्यन्त्रद्भिश्च वातद्भिश्च दारुणाम्॥ आतपे भावयेद्वैधः खल्लपात्रे च निर्मले।। अरुचिं चामवातश्च शूलं वातसमुद्भवम् । पेषयित्वा वटी खादेद्गुअाफलसमप्रभाम् ॥ गुल्मं चैवोदरव्याधीनाशयत्याशु तत्क्षणात् ॥ ___ + कई प्रन्थों में यह इलोका नहीं है । । भक्तोत्तरमिदं चूर्णमश्विभ्यां निर्मितं पुरा । For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy