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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-मैपज्य - रत्नाकरः । [ ३९२ ] लें । इसे पीसकर सर्पके दंश स्थान पर लगानेसे मृतप्रायः रोगी भी सचेत हो जाता है 1 (४१९२) पिण्याकादिलेपः ( वृ. मा. । क्षुद्ररोग; शा. ध. । ख. ३ अ. ११) पुराणमथ पिण्याकं पुरीषं कुक्कुटस्य च । मूत्रपिष्टः मलेषोऽयं शीघ्रं हन्यादरूंषिकाम् || तिलकी पुरानी खल और मुरगेकी विष्टाको गोमूत्र में पीसकर लेप करनेसे अरूंषिका ( शिरकी छोटी छोटी फुंसियां ) शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं । (४१९३) पिप्पल्या दिलेप: (१) ( भा. प्र. 1 अर्श.) पिप्पलीं सैन्धवं कुठं शिरीषस्य फलं तथा । सुधादुग्धार्कदुग्धं वा लेपोऽयं गुदजान् हरेत् ॥ पीपल, सेंधानमक, कूठ और सिरसके बीज समान भाग लेकर सबका महीन चूर्ण बनाकर उसे सेंड ( सेहुंड-थोहर ) या आकके दूध में घोटकर लेप करने से अर्शके मस्से नष्ट हो जाते हैं । | (४१९४) पिप्पल्यादिलेप: (२) ( ग. नि. । वृद्ध्यधि. ३५ ) पिप्पली जीरकं कुष्ठं बदरं शुष्कगोमयम् । काञ्जिकेन प्रलेपोऽयमन्त्रवृद्धि विनाशनः ॥ पीपल, जीरा, कूठ, बेर और सूखा हुवा गायका गोबर समान भाग लेकर सबको काखीके साथ खूब महीन पीस कर लेप करने से अन्य वृद्धि नष्ट होती है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ पकारादि (४१९५) पिप्पल्या दिलेप: (३) ( च. सं. । चि. अ. १४ अर्श. ) पिप्पल्यश्चित्रकः श्यामा किण्वं मदनतण्डुलाः । मलेपः कुक्कुट शक्रुद्ध रिद्रागुडसंयुतः ॥ पीपल, चीता, निसोत, किण्व (सुराबीज ), मैनफल के बीज, मुरगेकी विटा, हल्दी और गुड़ समान भाग लेकर खूब महीन पीसकर लेप करनेसे अर्शके मस्से नष्ट हो जाते हैं । (४१९६) पुत्रजीवका दिलेप: ( भा. प्र. म. ख. विस्फोटका . ) पुत्रजीवस्य मज्जानं जले पिष्ट्वा प्रलेपयेत् । कालस्फोटं विपस्फोट सो हन्यात्सवेदनम् ॥ कक्षाग्रन्थि कर्णग्रन्थि गलग्रन्थि च नाशयेत् ॥ पुत्रजीवक ( पितोजिया ) की मींगीको जलमें पीसकर लेप करनेसे वेदनायुक्त कालेफोड़े, विषैले फोड़े, कक्षाग्रन्थि, कर्णमूल और गलेकी गांठ शीघ्र ही नष्ट हो जाती है । (४१९७) पुनर्नवादिलेप: (१) ( वं. से. । व्रण; वृं. मा. । व्रणशोथा. ) पुनर्नवादारु शिग्रदशमूलमहौषधैः । कफवातकृते शोथे लेपः कोष्णो विधीयते ॥ पुनर्नवा ( बिसखपरासाठी ), देवदारु, सहजनेकी छाल, दशमूल और सोंठको महीन पीसकर मन्दोष्ण लेप करनेसे कफवातज शोथ नष्ट होता है । (४१९८) पुनर्नवादिलेप: (२) ( ग. नि. । वृद्ध्यधि. ३५ ) मूलं पुनर्नवायाश्च शुष्कैरण्डफलं तिलाः । | सर्वमेकत्र सञ्चूर्ण्य यवचूर्णेन योजयेत् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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