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भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
[पकारादि
मर्दयेत्ताम्रपात्रे तु तस्मिन् रुध्वा विनिक्षिपेत् ।। हर्र की गुठली की मींग ३ भाग, बहेड़े की धान्यराशौ स्थित मासमञ्जनम् पटलं हरेत् ॥ गुठली की मांग २ भाग और आमले की गुठलीकी ___कौड़ी के चूर्ण को करेले के रस में अच्छी
मींग १ भाग लेकर सब को पानी के साथ महीन
पीसकर बत्तियां बनावें। तरह भूनें । तत्पश्चात् पारा, सुहागा और लाख
इसे आंखों में आंजने से अत्यन्त प्रवृद्ध अश्रुतथा वह कौड़ी का चूर्ण समान-भाग लेकर सब
स्राव और कष्टसाध्य नेत्र प्रकोप (आंख दुखना) को जम्बीरी नीबू के रस में तांबे के पात्र में घोटकर
नष्ट होता है। तांबे के पात्र में भरकर उस के मुख को अच्छी तरह
(४२२४) पलाशरसयोगः बन्द कर दें और उसे अनाज के ढेरमें दबा दें।
(वै. म. र. । पट. १६) फिर १ मास पश्चात् औषध को निकालकर महीन
| दिनावसाने रुधिरं पलाशा
AAT. पीस लें।
दादाय नेत्रे सहसैव दद्यात् । इसे आंख में आंजने से पटलरोग नष्ट नक्तान्ध्यमाश्वेव विजित्य होता है।
जीवेच्चन्द्रातपे चाक्षरवाचकः स्यात् ।। (४२२२) पत्राद्यञ्जनम्
सन्ध्या समय पलाश (ढाक) का रस आंख _(वृ. मा. । नेत्ररो.) में डालने से नक्तान्ध्य (रतौंधा) शीघ्र ही नष्ट हो पत्रगैरिककर्पूरयष्टीनीलोत्पलाञ्जनम् ।
| जाता है।
इस प्रयोग से चन्द्रमा की चांदनी में पुस्तक नागकेशरसंयुक्तमशेषतिमिरापहम् ॥
पढ़नेकी शक्ति प्राप्त होती है। तेजपात, गेरु, कपूर, मुलैठी, नीलोत्पल,
| (४२२५) पारदाद्यञ्जनम् सुरमा और नागकेसर के समान-भाग मिश्रित चूर्ण
(ग. नि. । नेत्ररो. ३) को घोटकर अञ्जन बनावें।
| मृतकं गन्धकोपेतं चाङ्गेरीरसमूच्छितम् । इसे आंख में आंजने से तिमिर रोग नष्ट | अञ्जनं दृष्टिदै नृणां सर्वनेत्रामये हितम् ।। होता है ।
पारे गन्धककी कजली को चांगेरी ( चूके)
| के रस में घोटकर अञ्जन बनावें । (४२२३) पथ्याद्यञ्जनम्
इसे आंख में आंजने से समस्त नेत्र रोग नष्ट (यो. र.; वृ. नि. र; वं. से. । नेत्ररो.) होते और दृष्टि बढ़ती है। पथ्याक्षधात्रीफलमध्यबीजै
| (४२२६) पारिजातादियोगः विद्वयेकभागैर्विदधीतवर्तिम् ।
(ग. नि.। नेत्ररो. ३) तयाञ्जयेदश्रुमतिप्रवृद्ध
वल्कलं पारिजातस्य तैलं काञ्जिकसैन्धवम् । मक्ष्णोहरेत्कष्टमपि प्रकोपम् ॥ कफजातातिशूलनं गिरिघ्नं कुलिशं यथा ॥
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