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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः। [५०५] करें । फिर उसे १ दिन सेंभलके रसमें घोटकर ( मात्रा--३ रत्ती ) गोला बनालें और उसे पानांमें. लपेट कर कपड़ नोट--भाण्डपुटकी विधि 'पाषाणभेदी मिट्टी की हुई आतशी शीशीमें डाल दें तथा रस' के फुटनोट में देखिये । शीशीको सेंभलके रससे भरकर दो पहर बालुकायन्त्रमें पकावें । इतने समय में वह समस्त द्रव (४४३६) प्रचण्डभैरवो रसः सूख जायगा । ( यदि न सूखे तो अधिक देर (र. र. । अपस्मा.) पकावें । दो पहर से कम न पकाना चाहिये।) कासीसं गन्धकं सूतं दरदं मधुपुष्पकम् । तदनन्तर शीशीके स्वांगशीतल होनेपर उसमें से | गुडूची शाल्मली धान्यं भूनिम्बोऽमरतुम्बुरु ॥ औषधको निकालकर पीस लें। | तिलमुद्गपटोलानि द्राक्षां कूष्माण्डभस्म च । इसमें से २ रत्ती रस पानमें रखकर खाने | झिण्टिका कन्यका भाङ्गो बलाद्वयसमायुतम् ।। और उसके बाद ५ तोले मूसली के चूर्णको सर्वमेतत्समाहृत्य मध्वाज्ये गुटिकाः शुभाः। मिश्रीयुक्त दूधके साथ फांकनेसे अत्यन्त वीर्यवृद्धि छर्घपस्मारमुन्मादवातरोगांश्च दुस्तरान् । और बहुसंख्यक स्त्रियोंसे रमण करनेकी शक्ति कासं श्वासं क्षयं हिक्कां दुर्नामश्च प्रमेहकम् । प्राप्त होती है। पित्तज्वरारुचिञ्चैव तिमिरं चक्षुरामयम् ।। (४४३५) पोटलीरसः गलरोगेषु सर्वेषु कर्णस्तम्भं हरेछुवम् ॥ (र. र. स. । अ. १६) ___ शुद्ध गन्धक, कसीस, पारद, सिंगरफ, महुकपर्दतुल्यं रसगन्धकल्क वेके फूल, गिलोय, संभलकी मूसली, धनिया, चिरालोहं मृतं टङ्कणकं च तुल्यम् । यता, देवदारु, तुम्बुरु, तिल, मूंग, पटोल, जयारसेनैकदिनं विमर्य मुनक्का, पेठेकी भस्म, पियाबांसा, घीकुमार, भारंगी चूर्णेन सम्पेष्य पुटेत भाण्डे ॥ खरैटी और कंघी समान भाग लेकर प्रथम पारे ददीत तां पोटलिकां च दोष गन्धककी कज्जली बनावें फिर उसमें अन्य चीजों ___ त्रयप्रधानग्रहणीनिवृत्यै ॥ का महीन चूर्ण डालकर सबको आवश्यकतानुसार कौड़ीभस्म ५ तोले, शुद्ध पारा और गन्धक | घी और शहदमें घोटकर (१-१ माशेकी) गोलियां २॥ २॥ तोले, लोहभस्म ५ तोले तथा सुहागेकी | बना लें । खील ५ तोले लेकर सबको १-१ दिन जयाके इनके सेवनसे छर्दि, अपस्मार, उन्माद, वातरस और चूनेके पानीमें घोटकर शरावसम्पुटमें | रोग, खांसी, स्वास, क्षय, हिचकी, अर्श, प्रमेह, बन्द करके भाण्डपुटमें पकावें । पित्तज्वर, अरुचि, तिमिर, नेत्ररोग, गलरोग औ इसके सेवनसे त्रिदोषज संग्रहणी नष्ट होती है। । कर्णस्तम्भ का अवश्य नाश हो जाता है। For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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