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भारत-भैषज्य रत्नाकरः
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समानभागमिश्रित चूर्ण मिलाकर उसे नागबलाके १००० पल ( ६२ || सेर) रस की भावना देकर छाया में सुखा लें। और फिर उसमें उससे २ गुना घी या बराबर बराबर घी और शहद मिलाकर क्षुद्रगुड ( पतली राब ) के समान बना लें और उसे घृत रखनेके मज़बूत और चिकने पात्रमें भरकर, उसका मुख बन्द करके भूमिमें गढ़ा खोद कर उसमें रख दें और राखसे दबा दें । एवं १५ दिन बाद निकालकर उसमें उसका आठवां भाग सोना, चांदी, ताम्र, प्रवाल और कृष्णलोहका चूर्ण ( भस्में ) मिलाकर सुरक्षित रक्खे ।
इसे आधा कर्ष ( ७ || माशे ) की मात्रा प्रारम्भ करके धीरे धीरे मात्रा बढ़ाते हुवे विधि
(४६५५) बदरीफलादिघृतम् ( ग. नि. । कासा. )
कोललाक्षारसे तद्वत्क्षीराष्टगुणसाधितम् । कल्कैः कटूबङ्गदार्वीत्वकुवत्सकत्वक्फलैर्धृतम् ॥
[ वकारादि
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पूर्वक प्रातः काल सेवन करने और औषध पचने पर अग्नि- बलानुसार दूध के साथ घृतयुक्त साठी चावल का भात खानेसे रोग रहित दीर्घायु प्राप्त होती है ।
इति वकारादिलेहप्रकरणम् ।
Paris का और लाक्षारस तथा आठ गुने दूध और अरलुकी छाल, दारूहल्दीकी छाल, कुड़ेकी छाल तथा इन्द्रजौके कल्कसे सिद्ध घृत खांसीका नाश करता है ।
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इसे प्राचीन काल में ऋषियोंने सेवन किया था । इसके सेवन से अत्यन्त बलकान्ति, सन्तति और तेजकी वृद्धि होती है । मनुष्य श्रुतिधर, चट्टान समान् दृढ़ और वायुके समान् विक्रम शाली हो जाता है ।
यदि शरीरमें किसी प्रकारके विषका प्रवेश हो गया हो तो वह भी इसके सेवनसे नष्ट हो जाता है ।
( व्यवहारिक मात्रा - - ३ माशे । )
अथ बकारादिघृतप्रकरणम् ।
( घी १ सेर; काथ और लाक्षारस २–२ सेर दूध ८ सेर; कल्ककी हरेक वस्तु २॥ तोले ।
लाक्षारस बनानेकी विधि भारत भैषज्य रत्नाकर भाग १ में पृष्ठ ३५३ पर देखिये । ) (४६५६) बलाघृतम्
( व. से. । वातरक्ता ; भा. प्र. | म. स्व. २ वातरक्ता.; च. सं. । चि. अ. २९ ) बलामतिबलां मेदामात्मगुप्तां शतावरीम् । काकोलीं क्षीरकाकोलीं रास्नां मृद्वीश्च पेचयेत् ॥
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