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[२५०]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[नकारादि
पलप्रमाणं प्रत्येक गृह्णीयाच विधानवित् । । अभ्रकभस्म, ताम्रभस्म, लोहभस्म, स्वर्णमासर्वमेकीकृतं चूर्ण वैद्यः कुशलकर्मभिः॥ क्षिक भस्म, रसाञ्जन (रसौत) और शुद्ध आमलाततस्तु भावना कार्या त्रिफलाभृजराजकैः । सार गन्धक १-१ पल (५-५ तोले) लेकर ततः पक्षिपेच्चूर्णश्च पिप्पलीमूलयष्टिका ॥ सबको एकत्र घोटकर त्रिफलाके काथ और भंगरेएला पुनर्नवा दारु पाठा भृङ्गं शठी वचा । के रसकी १-१ भावना दें । तत्पश्चात् उसमें नीलोत्पलचन्दनञ्च श्लक्ष्णचूर्णश्च दापयेत् ॥ पीपलामूल, मुलैठी, इलायची, पुनर्नवा, देवदारु, माषमेकं प्रदातव्यम् घृतश्रीमधुमर्दितम् । पाठा, भंगरा, कचूर, बच, नीलोत्पल, और सफेद मर्दनं लौहदण्डेन पात्रे लोहमये दृढे ॥ चन्दनका १-१ माषा चूर्ण मिलाकर खरल करें। अनुपानं प्रयोक्तव्यमुष्णेन वारिणा तथा। इसमें से १-१ माषा औषधको घी और यावतो नेत्ररोगांश्च पानादेव विनाशयेत् ॥ | शहद मिलाकर लोहेके खरलमें लोहेकी मूसलीसे सरक्ते रक्तपित्ते च रक्ते चक्षुःसुतेपि च । घोटकर गरम पानीके साथ खिलानेसे समस्त नेत्रनत्तान्ध्ये तिमिरे काचे नीलिका पटलार्बुदे ॥ रोग, रक्तपित्त, आंखोसे रक्तस्राव होना, नक्तान्ध्य अभिष्यन्देऽधिमन्थे च पिष्टे चैव चिरन्तने। ( रतौंधा ), तिमिर, काच, नीलिका, पटल, नेत्रानेत्ररोगेषु सर्वेषु वातपित्तकफेषु च ॥ र्बुद, अभिष्यन्द, अधिमन्थ और पुराना पिष्टक सर्वनेत्रामयं हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥ इत्यादि रोग नष्ट होते हैं ।
इति नकारादिरसप्रकरणम् ।
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अथ नकारादिमिश्रप्रकरणम्
(३६६७) नखद्रव्यशुडि:
नखको भैंस या गायके गोबरके रस में या (र. र.; वं. से. । वातरो.) तिन्तड़ीकके काथमें, और यदि इनमें से कोई चण्डीगोमयतोयेन यदि वा तिन्तिडीजलैः ।
पदार्थ न मिल सके तो काली मिट्टीके पानीमें नखं संकाययेदेभिरभावे मृजलेन तु ॥
थोड़ी देर पकाकर धोकर (तवे आदि पर) गरम
करके गुडयुक्त हरके काथमें वुझावें तत्पश्चात् उसे पुनरुद्धत्य प्रक्षाल्य भर्जेयित्वा निषेचयेत् ।
चन्दनादि सुगन्धित द्रव्योंके पानीके साथ घोटकर गुडपथ्याम्बुना ह्येवं शुध्यते नात्र संशयः ॥ । मिट्टीके शरावेमें रख कर सुगन्धित फूलोंसे बसावें सम्पर्य चन्दनायैस्तु वासयेत्कुसुमैः शुभैः॥ तो वह शुद्ध हो जाता है।
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