SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [२४९] - - इनमें से १८ गोली नित्य प्रति यथोचित (३६६५) नृसिंहपोटलीरसः अनुपानके साथ खानेसे अग्निमांध, आमदोष, | (र. रा. मुं.; वृं. नि. र. । अति.) विसूचिका, प्लीहा, गुल्म, उदर, अष्ठीला, यकृत् , | रसश्च गन्धपाषाणः प्रत्येकं कर्षमात्रकम् । पाण्ड, कामला, हृदयशूल, पृष्टशूल, पसलीशूल, श्लक्ष्णचूर्ण द्वयोः सम्यक् मकुर्यात्कुशलो भिषक्॥ कटिशूल, कुक्षिशूल, आनाह, आठ प्रकारका उदर- तच्चूर्ण पीतवर्णाभाकपर्दाभ्यन्तरे कृतम् । शूल, खांसी, श्वास, आमवात,श्लीपद, शोथ, अर्बुद, शरावपुटके न्यस्य लिप्त्वा सम्भृतगोमयः ॥ गलगण्ड, गण्डमाला, अम्लपित्त, गृध्रसी, कृमिरोग, सुतीब्राग्नौ पचेतावद्यावद्गच्छति भस्मताम् । कुष्ठ, दाद, वातरक्त, भगन्दर, उपदंश, अतिसार, समुद्धत्याश्मना सर्व चूणितं सकपदेकम् ॥ ग्रहणीविकार, अर्श, प्रमेह, पथरी, मूत्रकृच्छ्र, भय- गव्येन सर्पिषा नित्यं भक्षयेद्रक्तिकाद्वयम् । कर मूत्राघात, जीर्णज्वर, तन्द्रा, आलस्य, भ्रम, ज्वरातिसारकं सर्व हन्यातूर्ण च दुर्जयम् ।। कान्ति, दाह, विद्रधि, हिका, जड़ता, गदगदता। अतीसारं समग्रं च ग्रहणी सर्वजां तथा । (हकलाना ), मूकता, मूढता, स्वरभेद, बन, चिरज्वरं च मन्दाग्निं क्षीरज्वरहरं च तत् ।। अण्डवृद्धि, विसर्प, ऊरुस्तम्भ, रक्तपित्त, गुदभ्रंश, रस एष नृसिंहस्य मता पोट्टलिका हिता। अरुची, तृषा, कर्णरोग, नासारोग, मुखरोग, दन्त-हिता सर्वज्वरीणान्तु सर्वातीसारिणां शुभा ॥ रोग, पीनस, शून्यवात, शीतपित्त, स्थावरादि विष, समान भाग पारे और गन्धककी कज्जलीको तथा अन्य वातज, पित्तज, कफज, द्वन्द्वज और पीली कौडियोंके भीतर भरकर उन्हें शरावसम्पुटसन्निपातज रोग नष्ट होते तथा बल, वर्ण, वीर्य, में बन्द करके उसके ऊपर गोबरका लेप कर भयु, कामशक्ति और बुद्धि की वृद्धि होती है। दीजिये । और फिर उसे तीब्राग्निमें इतना पकाइये इसके सेवनसे रोगी निरोग और स्वस्थ दीर्घ- कि कौड़ियोंकी भस्म हो जाय । तत्पश्चात् सम्पुटनीवी होता है। के स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको नृपतिवल्लभरसः (२) निकालकर कौड़ियों समेत पीस लीजिये । (र. सा. सं.। ग्रह.) __इसमें से २-२ रत्ती औषध गायके घीके " महाराजनृपतिवल्लभरस” देखिये । साथ सेवन करनेसे दुस्साध्य ज्वरातिसार, अतिनृपतिवल्लभरसः (३) सार, ग्रहणीविकार, जीर्णज्वर, और अग्निमांद्य, (र. सा. सं. । ग्रह.) नष्ट होता है। “ महाराजनृपतिवल्लभरस” देखिये। (३६६६) नेत्राशनिरसः नृपवल्लभरसः ( र. चं.; र. सा. सं.; र. रा. सुं. । नेत्रा.) (भै. र.; र. सा. सं. र. रा. सुं. । ग्रह.) अभ्रं ताम्र तथा लौहं माक्षिकं च रसाधनम् । "राजवल्लभरस" देखिये। पातनायन्त्रशुद्धं गन्धकं नवनीतकम् ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy