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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ४९० ] पित्त और शहद, घी तथा मिश्री में मिलाकर चाटने से वातपित्तका नाश होता है । (४४०४) पित्तलभस्मविधिः ( र. र. स. । अ. ५ ) निम्बूरसशिलागन्धवेष्टिता पुटिताऽष्टधा । रीतिरायाति भस्मत्वं ततो योज्या यथायथम् ॥ ताम्रवन्मारणं तस्याः कृत्वा सर्वत्र योजयेत् ॥ भारत - भैषज्य रत्नाकरः । मनसिल और गन्धक समान-भाग-मिश्रित ( पीतल के बराबर ) लेकर दोनोंको नीबूके रसमें घोटकर पीतलके पत्रोंपर लेप कर दें और उन्हें सम्पुटर्मे बन्द करके गजपुटमें फूंक दें । इसी प्रकार ८ पुट देनेसे पीतलकी भस्म बन जाती है । पीतल की भस्म ताम्र भस्म की विधिसे बनाकर सर्वत्र प्रयुक्त कर सकते हैं । (४४०५) पित्तलरसायनम् ( र. र. स. । अ. ५ ) मृतारकूटकं कान्तं व्योमसत्त्वं च मारितम् । त्रयं समांशकं तुल्यव्योषजन्तुघ्नसंयुतम् ॥ ब्रह्मबीजाजमोदाऽभिल्लाततिलसंयुतम् । सेवितं निष्कमात्रं हि जन्तुघ्नं कुष्ठनाशनम् ॥ विशेषाच्छ्रुतकुष्ठनं दीपनं पाचनं हितम् ॥ पीतलभस्म, कान्तलोहभस्म और अभ्रकसत्वभस्म १ - १ भाग तथा सोंठ, मिर्च, पीपल, बायबिडंग, पलाशके बीज, अजमोद, चीतामूल, शुद्ध भिलावा और तिलका समान भाग मिश्रित चूर्ण ३ भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर अच्छी तरह खरल करके रखें । | [ पकारादि इसमें से ४ माशे चूर्ण नित्य प्रति सेवन करनेसे कृमि, कुष्ठ और विशेषतः श्वेतकुष्ठ नष्ट होता है यह प्रयोग दीपन और पाचन है । ( व्यवहारिक मात्रा ४ रत्ती । ) (४४०६) पित्तलशोधनम् ( र. र. स. | अ. ५ ) रीतिका काकतुण्डी च द्विविधं पित्तलं भवेत् । सन्तप्त्वा काञ्जिके क्षिप्ता ताम्राभा रीतिका मता । एवं या जायते कृष्णा काकतुण्डीति सा मता । रीतिस्तिक्तरसा रूक्षा जन्तुघ्नी सास्रपित्तनुत् || कृमिकुष्ठहरा योगात्सोष्णवीर्या च शीतला । aragust गतस्नेहा तिक्तोष्णा कफपित्तनुत् ॥ यकृत्प्लीहहरा शीतवीर्या च परिकीर्तिता । गुर्वी मृद्वी च पीताभा साराङ्गी ताडनक्षमा ॥ सुस्निग्धा मसृणाङ्गी च रीतिरेतादृशा शुभा । पाण्डुपीता खरा रूक्षा बर्बराडताडनक्षमा || पूतिगन्धा तथा लघ्वी रीतिर्नेष्टा रसादिषु । तप्त्वा क्षिप्त्वा च निर्गुण्डीरसे श्यामारजोन्विते पञ्चवारेण संशुद्धिं रीतिरायाति निश्चितम् ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पीतल दो प्रकारकी होती है एक 'रीतिक' और दूसरी ' काकतुण्डी ' । अग्नि में तपाकर कांजी में बुझानेसे जिसके रंगमें ताम्रकी सी झलक आजाय वह 'रीति' और जिसका रंग काला हो जाय वह 'काकतुण्डी' कहलाती है । रीति -- रसमें तिक्त; रूक्ष; कृमि, रक्तपित्त और कुष्ट नाशक तथा योगवाही है For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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