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कपायप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[१५५]
(३३६५) नागरादिकाथ: (११) इलायची। इनका काथ भयङ्कर सन्निपात ज्वरको भी
(यो. र. । शूला.) | नष्ट कर देता है। नागरैरण्डयोः काय काय इन्द्रयवस्य वा ।
(३३६८) नागरादिक्काथः (१४) हिसौवचेलोपेतो वातशूलनिवारणः॥
१. नि. र.; वृं. मा.; यो. र.; च. द. । ज्वरा.; सोंठ और अरण्ड मूलके या इन्द्रजोके काथ! वं. से. । अति.; धन्व. । ज्वर; भा. प्र. । में हींग और सञ्चल (कालानमक ) मिलाकर ।
ख. २ ज्वरा.; यो. चिं. । काथा.; वृ. यो. पीनेसे वातज शूल नष्ट होता है।
त. । त. ६५) (२३६६) नागरादिकाथः (१२) (ग. नि. । ज्वर.)
नागरातिविषामुस्ताभूनिम्बामृतवत्सकैः । सनागरोशीरघनः सधान्यः
सर्वज्वरहरः काथः सर्वातीसारनाशनः ॥ सपिप्पलीकश्च सचन्दनश्च ।
सोंठ, अतीस, नागरमोथा, चिरायता, गिलोय तृतीयकं हन्ति कृतः कषायः
| और इन्द्रजौका काथ सर्व प्रकारके ज्वर और अतिसमाक्षिकश्चापि सशर्कराश्च ।। सारेको नष्ट करता है। साठ, खस, नागरमाथा, धानया, पापल आर (३३६९) नागरादिगण्डूष: लाल चन्दन । इनके काथमें शहद और खांड
(भा. प्र. खं. २ । दन्त.) मिलाकर पिलानेसे तृतीयक ( तिजारी ) ज्वर नष्ट |
शीतादे हृतरक्ते तु तोये नागरसर्षपान् । होता है। (३३६७) नागरादिकाथः (१३)
निष्काथ्य त्रिफलाश्चापि कुर्याद्गण्डूषधारणम्॥ (वृ. नि. र. । सन्नि.)
___ शीताद नामक दन्त-रोगमें मसूढोंसे रक्त नागरं धान्यकं भार्गी पद्मकं रक्तचन्दनम् । निकलवानेके पश्चात् सेठ और सरसोंके यां पटोलपिचुमन्दश्च त्रिफलामधुकं बला ॥ त्रिफलाके काथके गण्डूप धारण करने चाहिये। शर्करा कटुका मुस्ता गजाहा व्याधिघातकः । (३३७०) नागरादिपाचनकषायः किराततिक्तममृता दशमूली निदिग्धिका ॥
( वृ. नि. र.; वृं. मा. । ज्वर.) योगराजो निहन्त्येषः सन्निपातज्वरापहः ।
नागरं देवकाष्ठश्च धान्यकं वृहतीद्वयम् । सनिपातं समुत्थानं मृत्युमप्यागतं जयेत् ॥ सोंठ, धनिया, भरंगी, पनाक, लाल चन्दन,
| दद्यात्पाचनकं पूर्व ज्वरितानां ज्वरापहम् ॥ पटोल, नीमकी छाल, हर्र, बहेड़ा, आमला, मुलैठी, ज्वरके आरम्भमें सोंठ, देवदारु, धनिया खरैटी, खांड, कुटकी, नागरमोथा, गजपीपल, कटेली और कटेला ( बड़ी कटेली ) का काथ देनेसे अमलतास, चिरायता, गिलोय, दशमूल, और । दोषोंका पाचन होकर ज्वर उतर जाता है।
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