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[१५४]
भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
[नकारादि
(३३५८) नागरादिकाथः (४) । मुनितरुवल्ककायस्तद्वत् (ग. नि. । अश्मर्य.)
पटुरामठपतीवापः ॥ नागरवरुणकगोक्षुरपाषाणभेद
सोंठ और सहजनेकी छालके या श्योनाक कपोतवङ्कजः काथः।
(अरल) की छालके काथमें हींग और सेंधानमक गुडयावशूकमिश्रः पीतो
मिलाकर निरन्तर तीन दिन तक पिलाने से शूल हन्त्यश्मरीमुग्राम् ॥
नष्ट हो जाता है। सोंठ, बरनेकी छाल, गोखरु, पखान भेद (३३६२) नागरादिकाथ: (८) (पाषाण भेद ) और ब्राह्मी के क्वाथमें जवाखार (वृ. नि. र.; वं. से. । ज्वर.) तथा गुड़ मिलाकर पीनेसे दुस्साध्य पथरी भी नष्ट नागरेन्द्रयवं मुस्तं चन्दनं कटुरोहिणी । हो जाती है।
पिप्पलीचूर्णसंयुक्तं कषायं तु पिबेन्नरः॥ (गुड़ १। तोला, और जवाखार ३ माषा
भ्रममूर्छारुचिछर्दिपित्तश्लेष्मज्वरापहम् ।। मिलाना चाहिये ।)
सोंठ, इन्द्रजौ, नागरमोथा, लाल चन्दन और (३३५९) नागरादिकाथ: (५)
कुटफीके काथमें पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलानेसे (वं. से. । अति.)
भ्रम, मूर्छा, अरुचि, छर्दि, और पित्तकफज ज्वर नागरामृतभूनिम्बबिल्वामलकवत्सकैः ।।
नष्ट होता है। समुस्तातिविषोशीरैर्वरातिसारहज्जलम् ॥
(३३६३) नागरादिकाथः (९) सोंठ, गिलोय, चिरायता, बेलगिरी, आमला,
(वृ. यो. त. । त. १२६; यो. र. । मसू.) इन्द्रजौ, नागरमोथा, अतीस और खसका काथ
नागरमुस्तगुडूचीधान्यकभार्गीद्वषैः कृतः काथः। ज्वरातिसारको नष्ट करता है।
वातश्लेष्मममूरीदुरी कुरुतेऽनुपानतः सत्यम् ॥ (३३६०) नागरादिकाथ: (६)
सोंठ, नागरमोथा, गिलोय, धनिया, भरंगी (वं. से. । अति.)
और बासेका काथ वातकफज मसूरिका ( माता ) नागरातिविषामुस्तागुडूचीविश्ववत्सकैः ।।
को शान्त करता है। कषायः पाचनः शोथज्वरातीसारवारणः॥ सोंठ, अतीस, नागरमोथा, गिलोय, बोल गोंद
| (३३६४) नागरादिकाथः (१०) और इन्द्रजौका काथ शोथ ज्वर और अतिसार
(वै. रह. । ज्वर.; भा. प्र. । ज्वर.) नाशक तथा पाचक है।
| नागरोशीरबिल्वाब्दधान्यमोचरसाम्बुभिः । (३३६१) नागरादिकाथ: (७) कृतः काथो भवेद् ग्राही पित्तश्लेष्मज्वरापहः।। (वै. म. र. । पटल ९)
सोंठ, खस, बेलगिरी, नागरमोथा, धनिया, नागरशोभाञ्जनयोः काथः
मोचरस और सुगन्धवाला । इनका काथ ग्राही शूलं विनाशयेत्रिदिनात् ।
और पित्तकफज्वर नाशक है ।
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