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रसप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[६०५]
इनके सेवनसे ज्वर एक दिनमें ही नष्ट हो । (४७४७) विभीतकाचो वटक: जाता है।
(ग. नि.; व. से.; र. रा. सु. । पाण्डु.) (४७४६) बिभीतकाख्यलवणम्
विभीसकायोमलनागराणां (मण्डूरलवणम् )
चूणे तिलानां च गुडश्च मुख्यः । (र. रा. सु. । क्रिमि.)
तक्रानुपानो वटकः प्रयोज्य: कृत्वाग्निवर्ण मलमायसं तु
क्षिणोति घोरानपि पाण्डुरोगान् । मूत्रेनिषिश्चेबहुशो गर्वा तत् ।
बहेड़ा, मण्डूरभस्म, सांठ और तिलका चूर्ण तत्रैव सिन्धत्यसमं विपाच्य
| समान भाग लेकर उसमें सबके बराबर पुराना गुड़ निरुद्धधूमश्च विभीतकानौ ॥ मिलाकर (६-६ माशे के) मोदक बना लें। तक्रेण पीतं मधुनाथ वापि
· इन्हें तक्रके साथ सेवन करनेसे भयङ्कर विभीतकाख्यं लवणं प्रयुक्तं ।
पाण्डु भी नष्ट हो जाता है । पाण्डवामयेभ्यो हितमेतदस्मा
(४७४८) बुभुक्षुवल्लभो रसः (१) त्पाण्ड्वामयन्नं न हि किश्चिदस्ति ।। | ( रसा. सार. । अजीर्णा. ) मण्डूरको बहेड़ेकी अनिमें तपा तपा कर सूतगन्धकसिन्दूरशङ्खशुक्तिवराटिकाः । अग्निके समान लाल करके बार बार गोमूत्र में बुझा- | तुचरीटङ्कणं फुल्ले पञ्चकोलाश्च तत्समाः॥ वें । जब उसका चूर्ण हो जाय तो उसमें उसके | वीजपूराम्बुना कृत्वा वटीः सेवेत मत्यहम् । बराबर सेंधा नमक और सबसे चार गुना गोमूत्र बुभुक्षार्थी मिताऽऽहारैरजी भिभूयते ॥ मिलाकर सबको हाण्डीमें भर दें और उसका मुख
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, रस सिन्दूर, शंखबन्द करके उसे चूल्हे पर चढ़ाकर नीचे बहेड़ेकी
भस्म, सीपभस्म, कौडाभस्म, सुहागे और फिटकीको लकड़ीकी आग जलावें । जब समस्त गोमूत्र जल
खील १-१ भाग तथा पञ्चकोल (पीपल, पीपलाजाय तो अग्नि देनी बन्द कर दें और हाण्डीके
मूल, चव, चीता और सोंठ ) का चूर्ण इन सबके स्वांग शीतल होने पर उसमें से औषधको निकाल
बराबर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें कर पीसकर रख लें।
और फिर उसमें अन्य ओषधियोंका चूर्ण मिलाइसे तक अथवा शहदके साथ सेवन करनेसे कर सबको बिजौ रे नीबूके रसमें घोटकर (१-१ पाण्डु नष्ट होता है। पाण्डुके लिये यह सर्वोत्तम | माशेकी ) गोलियां बना लें। औषध है।
___यदि मिताहारी व्यक्ति इन्हें सेवन करता (मात्रा-२-३ माशे।)
रहे तो उसे अजीर्ण नहीं होता।
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