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कषायमकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[५५१]
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तत्पिमेत्तक्रसंयुक्त तक्रभोजी मिताशनः । गवां स्तनीसंयुतकल्कमेतत् निहन्यादाशु योगोऽयं जलोदरमपि ध्रुवम् ॥ पानं हितं पित्तकफात्मके च ॥
कीकरकी छाल और त्रिफलेको कूटकर आठ | खरैटी, छोटी और बड़ी कटेली, मुलैठी, गुने पानीमें पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष । बासा, कूठ, नीमकी छाल और मुनक्काका कल्क रह जाय तो उसको छानकर पुनः पकाकर गाढ़ा | सेवन करनेसे पित्तकफज खांसी नष्ट होती है। कर लें।
(४५४९) बलादिकल्क: (३) इसे तकके साथ पीने और केवल तक पर
(यो. र.; उरःक्ष.; ग. नि.; वृ. मा. । रा. य.; ही संयमके साथ रहने से जलोदर तक भी अवश्य
___ भा. प्र. म. ख.; वृ. नि. र.। क्षय.) । शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
| बला विदारी श्रीपर्णी बहुपुत्री पुनर्नवा । (४५४६) यन्चूल्यादिस्वरसयोगः
पयसा नित्यमभ्यस्ताः शमयन्ति क्षतक्षयम् ॥ (वृ. नि. र. । अतीसा.)
। खरैटी, विदारीकन्द, खम्भारीकी छाल, शतावर स्थूलबन्धूलिकापत्ररसः पानाद्वधपोहति ।।
और पुनर्नवा को दुधमें पीसकर पीनेसे क्षत क्षयका सर्वातिसारान् श्योनाककुटजत्वग्रसोय वा ॥
नाश होता है। ___बड़े बबूल के पत्तोंका रस अथवा अरलु या कुड़ेकी छालका रस पीनेसे सर्व प्रकारके अतिसार (४५५०) बलादिकल्कः (४) नष्ट होते हैं।
__(वृ. नि. र. । स्त्रीरो.) (४५४७) बलादिकल्कः (१)
बलाचांशुमतीद्राक्षा उशीरं तिक्तरोहिणी । (यो. र. । प्रदर.; वृ. मा. । प्रदर; | लवणं चन्दनं कृष्णा सारिवा लोधसंयुता ॥ व. से. । स्त्रीरो.)
एतत्कल्कं समधुकं पाययेत्तन्दुलाम्बुना। प्रदरं हन्ति बलाया मूलं दग्वेन संयुतं पीतम्। त्र्यहात्मशमयत्येष योषितां पैत्तिकारुजः॥ कुशवाटयालकमूलं तण्डुलसलिलेन रक्ताख्यम् ॥ खरैटी, शालपर्णी, मुनक्का, खस, कुटकी,
खरैटीकी जडको दूध के साथ पीसकर उसीमें सेंधानमक, लाल चन्दन, पीपल, सारिवा, लोध मिलाकर पीनेसे प्रदर नष्ट होता है। | और मुलैठी समानभाग लेकर सबको एकत्र पीसकर
कुश और खरैटीकी जहको चावलेोके धोवन | चावलेकि धोवनके साथ पिलानेसे स्त्रियोंका पित्तज के साथ पीसकर पीनेसे रक्तप्रदर नष्ट होता है । प्रदर ३ दिनमें ही नष्ट हो जाता है। (४५४८) यलादिकल्क: (२) (४५५१) बलादिकाथ: (१) (हा. सं. । स्था. ३ अ. १२)
(व. से. । वाता.) बलाबृहत्यौ मधुकं वृषं च
बलामूलभृतं तोयं सैन्धवेन समन्वितम् । तथैव कुष्ठं पिचुमन्दकं च । । बाहुशोषगते वायौ मन्यास्तम्भे च शस्यते ॥
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