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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ३८८ ] (४१७०) पथ्यादिलेप: (३) (बृ. मा. | नेत्र ; ग. नि. वं. से.; यो. र.; -भैषज्य भारत वृ. नि. र. । नेत्र. ) पथ्यागैरिक सिन्धूत्यदार्वीताक्ष्यैः समांशकैः । जलपटैर्वहिर्लेपः सर्व नेत्रामयापहः ॥ समान भाग हर्र, गेरु, सेंधा नमक, दारूहल्दी और रसौत को पानी में पीसकर आंखोंके बाहर लेप करने से आंखों के समस्त रोग नष्ट होते हैं । ( दुखती आंखों में उपयोगी है | ) (४१७१) पथ्यादियोग: ( वै. म. र. | पटल १६ ) प्रस्थे पयसि सम्पर्क गवां पथ्याचतुष्टयम् । आपनं तेन सम्पिष्टं बहिर्लिप्तं गार्तिनुत् ॥ चार नग हर्र गाय के १ सेर दूध में पकावें । इस दूध में काली मिर्च पीसकर आंखों के बाहर ( पेवटों पर) लेप करने से नेत्र पीड़ा ( आंख की खड़क ) नष्ट होती है। (४१७२) पद्मकादिलेप: (१) (ग. नि. । विसर्पा ३९.) पद्मकोशीरमधुकचन्दनैश्च प्रशस्यते । लेपो विसर्पपित्तास्रदाहरागनिवारणः ।। पद्माक, खस, मुलैठी और लाल चन्दन को पीसकर लेप करने से विसर्प, रक्तपित्त, दाह और लालिमा नष्ट होती है । (४१७३) पद्मकादिलेप: (२) (वं. से. 1 स्त्री) पद्मोत्पलबीजानि त्रासानि शतावरी । विदारी चेमूल पिष्ट्वा धौत घृतायुतम् ॥ योन्यां शिरसि गात्रे च प्रदेहोऽसग्दापहः ॥ [ पकारादि पद्माक, कमलगट्टा, खीरे बीज, शतावर, बिदारीकन्द और ईख की जड़ । सब चीजें समान भाग लेकर सब को महीन पीसकर धुले हुवे धीमें मिलाकर योनि, शिर और शरीर में लेप करने से रक्तप्रदर और दाह का नाश होता है । नोट- रक्तप्रदर में योनि में और दाह में शरीर तथा शिरपर लेप करना चाहिये । (४१७४) पद्मिनीपङ्कादिलेपः (वृ. मा. । विसर्पा.) पैते तु पद्मिनोपङ्कपिष्टं वा शङ्खशैवलम् गुन्द्रामूलन्तु शुक्तिव गैरिकं वा घृतान्वितम् ॥ पैत्तिक विसर्प में कमलिनी की जड़ के नीचे की कीचड़ ( अथवा कमलिनी का कल्क ) अथवा शंख और शैवाल या नागरमोथे की जड़ अथवा सीप या गेरु को पीसकर घी में मिलाकर लेप करना चाहिये । (४१७५) पद्मोत्पलादिलेप: (वं. से. । उपदंश. ) पद्मोत्पलमृणालैश्च ससर्जार्जुन वेतसैः । सर्पिः स्निग्धैः समधुकैः पैत्तिकं संप्रलेपयेत् ॥ कमल, नील कमल, कमलनाल, राल, अर्जुन की छाल, बेत और मुलैठी के समान -भाग- मिश्रित महीन चूर्ण को घी में मिलाकर लेप करने से पैत्तिक उपदंश नष्ट होता है । - रत्नाकरः । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४१७६) पयस्यादिलेप: (वृ. मा. | नेत्ररोग. ) पयस्यासारिवापत्रमञ्जिष्ठामधुकैरपि । अजाक्षीरान्वितैर्लेपः सुखोष्णः पथ्य उच्यते ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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