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[५०० ] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[पकारादि (४४२६) पुष्पधन्वारसः (३)
रसाञ्जनं टङ्कणश्च शिलाजतु फलन्तथा । (या. र. । वाजीकरणा.)
अभ्रांशश्च फलं ग्राहयं प्रत्येकं तोलकत्रयम् ॥ कनकहरजकान्तं ताप्यकं वृद्धिभागं,
भेकपर्णी पञ्चमूली बलाकञ्चटदाडिमम् ।
| पृङ्गाट केशरं जम्बू दधिमस्तु जयन्तिका ॥ द्विजकुवलययष्टीशाल्मलीनागिनीभिः । घृतमधुपयखण्डैः पुष्पधन्वा द्विवल्लो,
केशराज भाराज प्रत्येकं तोलकद्वयम् ।
| द्विमाषा वटिका कार्या तक्रेण परिसेविता ॥ रमयति बहुकान्ता दीर्घमायुर्विधत्ते ॥
इयं पूर्णकला नाम ग्रहणीगदनाशिनी । स्वर्णभस्म १ भाग, पारदभस्म २ भाग,
शूलनी दाहशमनी वहिदा ज्वरनाशिनी ॥ कान्तलोहभस्म ३ भाग और स्वर्णमाक्षिकभस्म ४
भ्रमच्छबिच्छेदकारी सङ्ग्रहग्रहणीं जयेत् ॥ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके तुम्बुरु, कमल, मुलैठी, सेंभलकी मूसली और पानांके रसमें
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रकभस्म, लोह१-१ दिन घोटकर ६-६ रत्तीकी गोलियां
भस्म, धायके फूल, बेलगिरि, शुद्ध बछनाग, इन्द्र बना लें।
जौ, पाठा, जीरा, धनिया, रसौत, सुहागा, शिलाइन्हें घृत मधु और मिश्रीयुक्त दूधके साथ
जीत, जायफल, हर्र, बहेड़ा और आमला ३-३
तोले; मण्डूकपर्णी, शालपर्णी, पृष्टपर्णी, कटेली, सेवन करनेसे अनेक स्त्रियांसे रमण करनेकी शक्ति और दीर्घायु प्राप्त होती है।
कटेला, गोखरु, बला (खरैटी), चौलाईकी जड़,
अनारका छिलका, सिंघाड़ा, केसर, जामनकी छाल (४४२७) पूतीकराचं चूर्णम्
(या गुठली), दहीका पानी, जयन्ती तथा सफेद (वं. से. । उदर.)
और काला भंगरा २-२ तोले लेकर प्रथम पार पूतीकरजबीजं मूलकबीजं गवादनीमूलम् ।।
गन्धककी कजली बनाकर उसमें भस्में मिलावें शभस्म च कानिकपीतं शमयेजलोदरमपि ॥ और फिर अन्य ओषधियांका चूर्ण मिलाकर सब __ पूतीकरा (कांटा करञ्ज ) के बीज, मूलीके को पानीके साथ अच्छी तरह घोटकर २-२ बीज, इन्द्रायणकी जड़, और शंखभस्म समान-भाग | माशेकी गोलियां बनावें। लेकर यथाविधि चूर्ण बनावें।
इन्हें छाछके साथ सेवन करनेसे ग्रहणीरोग, इसे कालीके साथ सेवन करनेसे जलोदर शूल, दाह, ञ्चर, भ्रम और छर्दिका नाश होता नष्ट होता है।
तथा अग्नि दीप्त होती है। (४४२८) पूर्णकलावटी
(४४२९) पूर्णचंद्रोदयरस: (र. सा. सं । ग्रहणीरो.)
(र. सा. सं.; र. चं । अतिसा.) रसं गन्धं घनं लौह धातकीपुष्पविल्वकम् । शुद्धश्च तालकं लौई गगनश्च पलं पलम् । विषं कुटजबीजश्च पाठा जीरकधान्यकम् ॥ । कर्पूरं पारदं गन्धं प्रत्येक बटकोन्मितम् ॥
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