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रसमकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[२३३]
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सीसाभस्म ४ भाग, स्वर्णमाक्षिक भस्म २ | पित्ते पर्पटतोयेन क्षये द्राक्षारसेन च । भाग, ताम्रभस्म, विमलभस्म, कान्तलोहभस्म, | प्रमेहे त्रिफलाकाथैर्देयः सर्वजनमियः॥ अभ्रकसत्व-भस्म, और स्फटिकमणि-भस्म १-१ | ग्रहण्यां शाल्मलीसत्त्वानुपानेन प्रदापयेत् । भाग लेकर सबको १ दिन त्रिफलाके काथ में | आईकेण समं देयः सर्वरोगेषु पारदः॥ घोटकर टिकिया बनाकर सुखावें और उन्हें शराव | शुद्ध ताम्रचूर्ण और शुद्ध पारा समान भाग सम्पुट में बन्द करके ३० अरने उपलोंकी अग्निमें लेकर दोनोंको कठूमर (कठगूलर ) के रसमें घोटफूंक दें । इसी प्रकार त्रिफलाके काथमें घोट घोट कर टिकिया बनाकर मुखाकर सम्पुट में बन्द करके कर ३० पुट दें।
फूंक दें । इसी प्रकार बार बार पारा मिलाकर ___ अब इसमें समान भाग मिश्रित सोंठ, मिर्च, | भस्म होने तक पुट लगाते रहें । पीपल और बायबिडंगका चूर्ण इसके बराबर मिला- | इसमेंसे १-१ रत्ती भस्म कठूमस्के रसके कर खरल करें।
साथ देनेसे कष्टसाध्य कुष्ठ अवश्य शीघ्र ही नष्ट इसे ३ रत्ती मात्रानुसार घी और शहदके | हो जाता है । इसके अतिरिक्त इसे विसूचिका में साथ सेवन करनेसे ८० प्रकारके वातरोग और भी कठूमरकी छालके रसके साथ और ज्वरमें विशेषतः धनुर्वातका नाश होता है तथा यथो- | पीपलके चूर्णके साथ, कफवृद्धिमें काली मिर्च के चित अनुपान के साथ खानेसे समस्त कफरोग, । चूर्णके साथ, वातज रोगांमें रास्नाके काथके साथ, सर्व मूत्रविकार, श्वास, खांसी, क्षय, पाण्डु, शोथ, पित्तज रोगों में पितपापड़ाके रसके साथ, क्षयमें शीतज्वर, संग्रहणी, आमदोष, दुस्साध्य अग्निमांद्य, दाख (मुनक्का ) के पानीके साथ, प्रमेहमें त्रिफला तथा जलविकार नष्ट होते हैं।
के काथ, संग्रहणीमें सेंभलकी छालके रस या (३६२५) नागराजरसः
मोचरस और अन्य रोगों में अद्रकके रसके साथ (र. चिं. । स्तब. ४; र. का. धे. । अ. ३९)
देना चाहिये।
| (३६२६) नागबल्लभरसः ताम्रचूर्ण रसं शुद्ध द्वयमेतद्विघृष्य च ।। काकोदुम्बरिकामूलभवैस्तोयैविभावयेत् ॥
(यो. र. । मेह.) पूर्ववत्पुटिते तस्मिन्पारदं शुद्धमानयेत् ।।
कर्षमाना मृगमदचोचटङ्कणका अथ । एकैकां रक्तिका दद्यात्काकोदुम्बरवारिणा॥ काश्मीरजन्मदरदपिप्पल्यः स्युद्धिकार्षिकाः ॥ कुष्ठ कष्टयुतं नूनं नाशयेदचिरेण तत् । आकारकरभो जातीपत्री जातीफलं विषम् । विसूच्यामपि दातव्यः पूर्वोक्तेनानुपानतः॥ प्रत्येक पलमानानि चत्वार्यथ सुखल्वके। ज्वरे च पिप्पलीभिस्तं श्लेष्मिके मरिचेन च । अहिवल्लीदलरसैमर्दयेच्च दिनत्रयम् । बातोवणेषु रोगेषु रास्नाकाथानुपानतः ॥ । मुद्गममाणा वटिका लीढा मध्वादकद्रवैः ।।
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