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[३०८]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[पकारादि
नाशक बलवर्धक, वर्ण-संस्कारक (रंगको ठीक । नमक, सञ्चल (काला नमक), सांठ और अजमोद करने वाला), वायुको अनुलोम ( यथोचित मार्गः समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। गामी) करने वाला, हृदयके लिये हितकारक तथा इसे दही, मद्य, आसव, काजी या घोके जिहा और कण्ठको शुद्ध करने वाला है। साथ सेवन करने से वातज हृद्रोग शान्त होता है। ( मात्रा-२-३ माशे।)
___ इसे वमन विरेचनादि द्वारा शरीर शुद्धि
करनेके पश्चात् सेवन कराना चाहिये । (३९६८) पिप्पल्या चूर्णम् (९)
( मात्रा-१-१॥ माशा) (ग. नि. । उदररोगा.; वा. भ. । चि. अ. १५;
१५ (३९७०) पिप्पस्यायोऽगदः . च. सं. । चि. अ. १८)
(पं. से. । विष.) विप्पली नागरं दन्ती समभागास्त्रयोऽभया । षीविषात मस्निग्धमय चापश्च शोषितम् । त्रिगुणाऽया विडादधैं तच्चूर्ण प्लीहनाशनम् ॥ पाययेदगदं मुख्यमिदं दृषीविषापहम् ॥ उष्णाम्बुक्षीरगोमूत्रैर्यथावत्संप्रयोजयेत् ॥
पिप्पली ध्यामकं मांसी लोध्रमेला सुवचिंका । पीपल, सोंठ और दन्तीमूल १-१ भाग, बालक परिपेला च तथा कनकगैरिकम् ॥ हरै ३ भाग और बायविडंग आधा भाग लेकर सौद्रयुक्तोऽगदो हथेष दृषीविषमपोहति । चूर्ण बनावें।
दूषीविषारिनामायं न कैश्चिदपिवाध्यते ॥ ____ इसे उष्ण जल, दूध या गोमूत्र के साथ पीपल, कत्तृण (अभावमें खस), जटामांसी, सेवन कराने से प्लीहा (तिल्ली) नष्ट होती है। | लोध, इलायची, सज्जीक्षार ( या सश्चल नमक ), (३९६९) पिप्पल्या चूर्णम् (१०)
सुगन्धबाला, केवटी मोथा और सोनागेरु समान
भाग मिलाकर चूर्ण बनावें । (वं. से. । द्रो.; आ. वे. वि. । चि. अ. १६;
रोगीको स्निग्ध करनेके पश्चात् वमन विरेवृ. यो. त. । त. ९९; ३. नि.र. । हृद्रो.)
चन कराके यह अगद शहदके साथ सेवन करापिप्पल्येला वचा हिज यवक्षारोऽय सैन्धवम् । | नेसे दूषी विष ( अन्नपानादि के दोषसे उत्पन्न हुवा सौवर्चलमयो शुण्ठी हयजमोदा च चूर्णितम् ॥ | विष) नष्ट होता है। दध्ना मधेनासवेन कालिकेन घृतेन वा। । (३९७१) पिप्पल्याणो योगः पाययेच्छुद्धदेहश्च वातदोगशान्तये ॥
(ग. नि. । हृदो.) पीपल, इलायची, बच, हींग, जवाखार, सेंधा | पिप्पली वीजपूरन नवनीतयुतं द्वयम् ।
1 घरक और माग्भट में त्रिगुणाकी जगह द्विगुणा हच्छूल भतितं हन्ति हृद्रोगं चाति दारुणम् ।। पाठ है, इसके अतिरिक्त चरकमें इस योगमें चित्रकमी।
कुटभट नतं कुठं यष्टोचन्दनगैरिकमिति पाठालिखा है तथा विडा १ भाग लिखी है।
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