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पूर्णमकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[३०९]
पीपल और बिजौरे नीबूकी जड़की छालके | प्रियङ्ग, अतीस, नागरमोथा, नागकेसर, त्रायमाना, चूर्ण को नवनीत (नैनी घी-मक्खन) में मिलाकर | चिरायता, कुटकी, बहेड़ा, अनारकी छाल, तबकी खानेसे हृदय-शूल और दुस्साध्य हृद्रोग नष्ट | हरताल और मनसिल १-१ भाग तथा छारछरीला होता है।
और रसौत ३-३ भाग लेकर चूर्ण बनावें। (३९७२) पीतकचूर्णम्
___ इसे शहद में मिलाकर मलनेसे मसूढ़े, गले, (च. द.; . मा.; वं. से. । मुखरो.; यो. त.। मुंह, होठ, जीभ और तालु के रोग नष्ट होते हैं । त. ६९; घ. सं. । चि. अ. २६ त्रिमी.; । (३९७४) पुण्डरीकयोगः र. र.; भै. र. । मुखरो.; वा. भ. । उ. अ. २०; वृ. यो. त. । त. १२८;
(३. मा. । नेत्ररोगा.) ग. नि. । चूर्णा.)
| एक वा पुण्डरीकं च छागक्षीरेण सेषितम् । मनःशिला यवक्षारो हरितालं ससैन्धवम। रागाश्रुवेदना हन्यात्क्षतपाकात्ययाजकाः॥ दारूत्वक चेति तच्चूर्ण माक्षिकेण समायुतम् ।।
केवल पुण्डरिया(या श्वेत कमल)को ही बकरीके मूच्छितं घृतमण्डेन कण्ठरोगेषु धारयेत् । दूधमें पीसकर सेवन करने से आंखोकी लाली, मुखरोगेषु च श्रेष्ठं पीतकं नाम कीर्तितम् ॥ | अश्रुस्राव, पीड़ा, क्षत, पाकात्यय और अजकाजात शुद्ध मनसिल, जवाखार, शुद्ध तबकिया |
रोग नष्ट होता है। हरताल, सेंधानमक और दारु हल्दीकी छाल समान | (३९७५) पुत्रजीवमज्जायोगः भाग लेकर चूर्ण बनावें।
( वृ. नि. र. 1 विष.) __इसे शहद और घीमें मिला कर मुखमें । पुत्रजीवस्य मज्जां च निष्कमात्रां गवांपयः । धारण करनेसे कण्ठरोग तथा मुखरोग नष्ट होते हैं। पिष्वा चोग्रतरं हन्यानानायोगकृतं विषम् ॥ (३९७३) पीतकं चूर्णम्
जियापोतेकी मजा (मींगी) ५ माशे ... (ग. नि. । चूर्णा. ). लेकर उसे गायके दूधमें पीसकर पिलानेसे अत्यन्त पटोलदा:मधुकं प्रियङ्गवतिषिपा घनम् ।।
उग्र दूषी विष ( अन्न पानादि के दोष या संयोग
विरुद्ध पदार्थोके योगसे उत्पन्न विष ) नष्ट सनागपुष्पं त्रायन्ती भूनिम्बं तिक्तरोहिणी ॥
होता है। विभीतकं दाडिमत्वग्धरितालं मनःशिला। समांशानि त्रिभागांशं सशैलेयं रसाउनम् ॥ (३९०
(३९७६) पुनर्नवादिचूर्णम् (१) पीतकं चूर्णमेतद्धि मध्वाक्तं प्रतिसारणम् ।
(वं. से.; भा. प्र.; भै. र. । आमवात.; वृ. यो. दन्तमूलगलास्योष्ठजिहातालविकारिणाम् ।।
त.। त. ९३ ) पटोल, दारुहल्दीकी छाल, मुलैठी, फूल- | पुनर्नवामृताशुण्ठीशताहायुद्धदारकम् ।
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