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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[पकारादि
नानासौ प्रमदानन्दो रसो ह्याशु विनाशयेत् ।। पीपल, जायफल, शुद्ध हिंगुल (शंगरफ), त्रिफलातोययोगेन सञ्जिरायुजान् गदान् ॥ सुहागेको खील, कौड़ीभस्म, शुद्ध बछनाग, शुद्ध जरायुरोगिणी नारी न च सेवेत पूरुषम् ।। धतूरेके बीज और सॉटका महीन चूर्ण लेकर सबको न खादेदुग्रवीर्याणि नापि कुर्यादतिश्रमम् ॥ | एकत्र मिलाकर १-१ पहर नीबू, धतूरा और
लोहभस्म, चांदीभस्म, स्वर्णभस्म, शुद्ध पारा, भंगरेके रसमें घोटकर सुखाकर चूर्ण करके शुद्ध गन्धक और शिलाजीत समान भाग लेकर | रक्खें । प्रथम पारे गन्धकको कज्जली बनावें और फिर इसे मिश्रीके साथ सेवन करनेसे भयङ्कर उसमें अन्य औषधे मिलाकर सबको चीतेके काथमें प्रमेह, ग्रहणी, कफ, वातशूल और मधुमेहका घोटकर १-१ रतीकी गोलियां बना लें। नाश होता तथा वीर्य और कामशक्तिकी वृद्धि
इन्हें त्रिफलाके काथके साथ देनेसे स्त्रियोंके होती है । समस्त जरायुरोग नष्ट हो जाते हैं। । (४४५७) प्रमदेभानुशरसः जरायु रोगसे पीड़ित स्त्रीको पुरुषसमागम,
(वृ. यो. त. । त. १४७) उपवीर्य पदार्थ और अति परिश्रमसे बचना
विशुद्धो रसो मासमुन्मत्ततैले चाहिये।
दशाहानि तैले तथोपर्बुधेषु । (४४५६) प्रमदानन्दो रसः (२)
विपाच्योऽहनिशं तच तैले (वृ. यो. त. । त. १४७ )
पलं जीयते तत्समो गन्धनामा । कणाजातिज हिलं टङ्कणं च
कृतां कज्जलिं तां विनिक्षिप्य कूप्यां वराट विष हेमवीनं च विश्वम् । मृदुस्वर्णपत्राणि सूताष्टमांशात् । भृशं मर्दयेनिम्बुनीरेण याम
ततो भस्मसादर्कयामं विधाय तथा धूर्ततोयेन भृशीरसेन ॥
स्वशीतं समादाय सिन्दूरकल्पम् ।। अद्रभे च मेहे विकारे ग्रहण्यां
यह खाखसलक्कपार्यविमर्थ कफे वातशूले मृतौ खण्डमेहे।
यह वैजयौर्जातिसारैदिनैकम् । मशस्तः सितासेवितः शुक्रकारी
तथा कोकिलाक्षस्य घर्स कपायरसः सर्वदाऽऽनन्दनामा प्रसिद्धः॥ विदार्याथ भूमौ क्षिपेद्गोलकं तम् ।। चपलानवयौवनभिन्नमदा
मृदा द्वयलोन्मानयाच्छाध पश्चाममदाशतदर्पहरः सहसा।
दरण्योपलद्वन्द्ववन् िविधाय । कथितो भृगुणा मुनिना शतशो | मुशीतं मृदुस्वेदमात रसेन्द्र ऽनुमितो रसिके रसराजपरः ॥
गृहीत्वा ततो भागमानं वदामः॥
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