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कषायप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
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धमासा, पित्त पापड़ा, फूल प्रियंगु, चिरायता, । (२८९०)दुःस्पशादिकाथः (यो. र. । ज्वर.) बासा और कुटकी के काथको खांडसे मीठा करके दुस्पर्शीशीरसिंहीयनमधुकशिवाजामिविश्वापीनेसे तृष्णा, रक्तपित्त, ज्वर और दाहका नाश | टरूपच्छिन्नारेणूकषायः समधुमगधको वापि होता है।
तश्चाष्टमांशम् । (२८८७) दुरालभादिकाथः (२)
दाह स्वेदं च शोष कृमिमथ रुधिरं शैत्यशुद्भा(वृ. नि. र. । श्वास.)
| न्तचित्तं वासं शूलं च तृष्णामहरहरसम इन्ति दुरालभानागरतिक्तपाठासठीपरण्डजटाकषायः
चातुर्थिकाधम् ॥ पीतः मशूलं शमयेज्ज्वरं च सपासकासं धमासा, खस, कटेली नागरमोथा, मुलैठी,
पवनप्रसूतम् ॥ हर्र, जीरा, सोंठ, बासा, गिलोय, और रेणुका । इनके धमासा, सोंठ, चिरायता, पाठा, सठी (कचूर) काथमें शहद और पीपलका चूर्ण मिलाकर पिलाबासा, और अरण्डकी जड़का काथ पीनेसे शूल | नेसे दाह, स्वेद, शोष, कृमि, रुधिरस्राव, शीत, मुक्त वातज ज्वर, खांसी और श्वास नष्ट होता है।
चित्तकी भ्रान्ति, श्वास, शूल, तृष्णा और चातु(२८८८) दुरालभादिकाथ: (३)
र्थिक (चौथिया) ज्वर नष्ट होता है । (वृ. यो. त. । त. १२६; यो. र.; बं. से. ।
नोट-शहद, १० तोले काथमें १। तोला मसूरि.)
और पीपलका चूर्ण १ माशा मिलाना चाहिये। दुरालभा पर्पटक पटोलं कटुरोहिणी ।
। (२८९१) दुःस्पर्शादिस्वरसप्रयोगः पिबेन्मसूर्यामेतेषां क्वार्थ पित्तकफात्मनि ॥
(वं. से. । उदावत.) पित्त कफज मसूरिकामें धमासा, पित्तपापड़ा, दुःस्पर्शास्वरसं वापि कषाय ककुभस्य च । पटोल पत्र, और कुटकीका काथ पिलाना चाहिये। एरुिबीज तोयेन पिवेचा लवणीकृतम् ।। (२८८९) दुरालभादिकाथः (४)
धमासेका स्वरस या अर्जुनकी छालका काथ (व. से.; Q. मा. । विस्फो .) पीनेसे अथवा ककडीके बीजोंको पानीमें पीसकर दुरालभां पपटक पटोले कटुकां तथा। (ठण्डाईसी बनाकर ) उसमें जरासा सेंधा नमक सोष्णं गुग्गुलुसंमिश्र पिवेद्वा खदिराष्टकम् ॥ मिलाकर पीनेसे; मूत्र रोकनेसे उत्पन्न हुवा उदावर्त
धमासा, पित्तपापड़ा, पटोलपत्र, और कुटकीके रोग नष्ट होता है। काथमें कालीमिर्च तथा शुद्ध गूगल मिलाकर पीनेसे | (२८९२ ) दूर्वादिकाथ: या खदिराष्टक सेवन करनेसे विस्फोटक रोग नष्ट (वं. से.; ग. नि.; . मा.। प्रमे.) होता है।
दुर्वाकसेरुपूतीककुम्भीकालवशेवलम् । (१० तोले काथमें १-१ माशा मिर्चका जलेन क्वथितं पीतं शुक्रमेहहरं परम् ॥ चूर्ण और गूगल मिलाना चाहिये । )
दूर्वा (दूब घास), कसेरु, करञ्ज (कञ्जा)
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