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घृतपकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[१८७]
घी मिलाकर लोहपात्रमें पकावें । जब घृत मात्र अनेन च भवत्याशु नरः सिंहपराक्रमः । शेष रह जाय तो उसमें स्वच्छ खांड, मिश्री भवत्यश्व जवश्चैव हेमवर्णश्च जायते ॥ या शहद ४॥ सेर मिलाकर अथवा बिना किसी नारसिंहमिति ख्यातं घृतं बलविवर्धनम् ॥ चीज़के मिलाये ही सेवन करें। मात्रा ५ तोले ।
चीता, शुद्ध भिलावा, शीसमका चूर्ण, खैर___ इसके सेवनसे मनुष्य शोभायुक्त, कालुष्य सार, हर्र, बायबिडंग, जीवक और बहेड़ा १०-१० रहित, बनैले भैसेके समान बलवान् , घोड़ेके । पल ( हरेक ५० तोले ) लेकर सबको ३२ सेर समान वेगवान् और स्थिराङ्ग हो जाता है। पानीमें लोहपात्रमें पकावें । जब ८ सेर पानी शेष इसे केवल एक मास तक ही सेवन करने से केश । रह जाय तो उसे छानकर उसमें थोड़ेसे लोहेके भ्रमरके समान काले, मुख सुगन्धि युक्त सुन्दर, टुकड़े डालकर रखदें और फिर ३ दिन पश्चात् और वाक्शक्ति, मेधा, बुद्धि तथा जठराग्नि तीब्र हो उसमें २४ सेर शतावरका रस, २४ सेर आमले जाती है । इसके अभ्यासी के शरीर पर व्याधियां | का रस, २४ सेर भंगरेका रस और २४ सेर अपना प्रभाव नहीं जमा सकती ।
बकरीका दूध तथा ८ सेर घी मिलाकर पकावें । (३४८१) नारसिंहघृतम् (२)
जब घृत मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें।
इसमें से नित्य प्रति ५ तोले घी में १। (ग. नि. । घृता.)
तोला शहद, खांड या गुड़ मिलाकर अथवा बहिर्भल्लातकं चैव शिशपा खदिरं तथा । बिना कुछ मिलाये ही सेवन करने से स्त्री सम्भोगहरीतकीविडङ्गानि जीवकञ्च तथाऽक्षकम् ॥
रत मनुष्योंको अन्धता, अग्निमांद्य, और बलि एषामाहत्य भागांस्तु सम्यग्दशपलोन्मितान् ।
पलितादि रोग नहीं होते। इसके सेवनसे मनुष्य जलद्रोणे युतं कृत्वा लोहभाण्डे निधापयेत् ॥
शीघ्र ही सिंह सदृश पराक्रमी, घोड़ेके समान वेगलोहभाण्डे पवेत्तावधावत्पादावशेषितम् ।।
| वान् और स्वर्ण सदृश कान्तिमान् हो जाता है । कार्थ लोहयुतं कृत्वा स्थापयेदिवसत्रयम् ॥
___इसके सेवनकालमें वायु, आतप इत्यादि त्रिगुणं तु शतावर्या रसं धाश्याश्च निक्षिपेत् । किसी चीजसे परहेज़ करनेकी आवश्यकता नहीं है। निक्षिपेत्रिगुणं चात्र भृगराजरसं शुभम् ॥ छागक्षीरं च तत्रैव त्रिगुणं च नियोजयेत् ।।
( व्यवहारिक मात्रा-१ से २ तोले तक) पक्त्वा घृताढकं तेन मधुना सितयाऽथवा ॥
(३४८२) नाराचकं घृतम् गुडेन वा पिबेत्साध केवलं वा पलोन्मितम । (ग. नि. । घृता.; वृ. यो. त. । त. १०५; न किश्चित्परिहार्य स्याद्वातातपनिषेवणम् ॥
वृ. नि. र.; वं. से.; यो. र.; भै. र.; अजीर्णे पिवतश्चापि वनितासेविनस्तथा।।
धन्वं. । गुल्मा.) नान्धता नामिहानिश्च न वलीपलितं भवेत् ॥ चित्रकं त्रिफला दन्ती त्रिता कण्टकारिका।
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