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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७८] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [दकारादि शाक), बाबची, करञ्जबीज, मूलीके बीज, तुलसी । उल्टा लटकाये रहें। इससे जो तैल टपके और अमलतासके पत्ते, यवक्षार और सेंधानमक । | उसे कांच या चीनी आदिके पात्रमें जमा करते रहें। सब चीजें समान भाग मिली हुई ६ तोले ८ माशे इस तैलको ज़रा गरम करके कानमें डालनेसे लेकर गोमूत्रमें महीन पिसवालें। कर्णपीड़ा नष्ट होती है। इसे लगानेसे दाद, खुजली, विचर्चिका और इसी विधिसे देवदार, कूठ और चीरकी लकपामा अत्यन्त शीघ्र नष्ट हो जाती है। ड़ियोंसे बनाया हुवा तैल भी कर्ण शूलको नष्ट (३१०५) दीपतैलाभ्यङ्गः करता है। (रा. मा. | विषा.) (३१०७) दूर्वातैलम् । अभ्यङ्ग दीपतैलेन देशे खर्जरकस्य यः। (भै. र.; वृं. मा.; ग. नि.; च. द.; करोति न करोत्यति तस्य तत्सम्भवं विषम्॥ यो. र. । कुष्ठ.) यदि कनखजूरेके काटे हुवे स्थान पर दीपक- स्वरसे चैव दुर्वायाः पचेत्तैलं चतुर्गुणे। के तैलकी मालिश की जाय तो विष नहीं चढ़ता। कच्छूविचचिकापामा अभ्यङ्गादेव नाशयेत् ॥ (३१०६) दीपिकातैलम् ८ सेर दूबके स्वरसमें २ सेर सरसोंका तेल (च. द.; यो. र.; वं. से.; भै. र.; . मा.; धन्व.; मिलाकर पकावें । इसकी मालिशसे कच्छू, विचवृ. नि. र.; ग. नि.; सु. सं. । कर्णरो.; वृ. र्चिका, और पामा ( खुजली ) नष्ट हो जाती है । यो. त. । त. १२९) (३१०८) दूर्वादितैलम् । (च. द. । व्रणशोथ.; वृ. यो. त. । त. ११२; महतः पञ्चमूलस्य काण्डान्यष्टालानि च । सोमेणावेष्य संसिच्य तैलेनादीपयेत्ततः॥ भै. र.; बूं. मा.; वं. से. । आगन्तुकत्रण ) यत्तैलं च्यवते तेभ्यः मुखोष्णं तत्प्रयोजयेत। । दूर्वा स्वरससंसिद्धं तैलं कम्पिल्लकेन च । ज्ञेयं तद्दीपिकातैलं सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ | दार्वीत्वचश्च कल्केन प्रधानं व्रणरोपणम् ॥ एवं कुर्याद भद्रकाष्ठे कुष्ठे काष्ठे च सारले। । येनैव विधिना तैलं घृतं तेनैव साधयेत् । मतिमान्दीपिकातैलं कर्णशूलनिवारणम् ॥ रक्तपित्तोत्तरं ज्ञात्वा सपिरेवावपाचयेत् ॥ बेल, सोनापाठा (अरलु); कुम्हार (खम्भारी), दूधके स्वरस और कबीले तथा दारुहल्दीके पाढल और अरणी की टहनियोंके ८-८ अंगुल कल्कके साथ पका हुवा तैल लगानेसे घाव भर लम्बे टुकड़े करके सबको एकत्र बांधकर या अलग जाते हैं। अलग रेशमी कपड़े में लपेट दें और फिर तैलमें तैलके समान ही इन्हीं चीजोंसे घृत भी पका अच्छी तरह तर करके उनके एक सिरेमें आग सकते हैं। यदि रक्त पित्तकी प्रधानता हो तो लगादें और दूसरे सिरेको चिमटे आदि से पकड़कर ! घृतही प्राक्त करना चाहिये । For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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