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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [५२०] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः। [पकारादि बास्य षटू षड्रसकाच्छीसकादय चाभ्रकात् ।। (४४६६) प्रमेहहरो रसः अर्कक्षीरेण सम्मघु पुटेद्गजपुटेन च ॥ | (र. का. धे. । अघि. २९) त्रिरष्टौ द्वादश तथा द्वात्रिंशत्महरं पुनः। रससौम्यशिला तानं मर्दयवेदयामकम् । बहिनिधाऽक्षीरेण भावयित्वा पुनः पुनः॥ कुमार्या च कदल्या च छिकाकूष्माण्ड रसैः ॥ एवं पुटैखिभिः सिद्धः कपोतग्रीवसनिमः। तद्रसैरेव संस्वेध मर्दयेद्रजनीद्रवैः। मेहरोगहरोऽयं स्याद्रसो मेहाधितारकः॥ | पुटेद्गजपुटेऽभत्थपलाशोदुम्बरेन्धनैः ।। शुद्ध पारा १८ निष्क, शुद्ध गन्धक २० चित्राक्षारान्तरेऽयं तु रसो मेहहरो भवेत् ॥ निष्क, हरताल सत्व तथा शुद्ध सोमल १२-१२ पारदभस्म, चांदीभस्म, शुद्ध मनसिल और निष्क तथा बंगभस्म, खपरियाभस्म, सीसाभस्म, ताम्रभस्म बराबर बराबर लेकर सबको चार पहर और अभ्रकभस्म ६-६ निक लेकर सबको एकत्र तक ग्वारपाठाके रसमें घोटकर १ दिन उसीके घोटकर १ दिन आकके दूधमें खरल करके छोटी रसमें दोलायन्त्र विधिसे पकायें तत्पश्चात् उसे इसी छोटी टिकिया बना लें और उन्हें सुखाकर शराव प्रकार केलेकी जड़, नकछिकनी और पेठेके स्वरसमें सम्पुट में बन्द करके गजपुटमें ३ पहरकी अग्नि पृथक् पृथक् ४-४ पहर घोटकर इन्हींके रसेमें दें अर्थात् गढ़े में इस अन्दाजसे उपले डालें कि ३ ४-४ पहर स्वदित करे और अन्तम हल्दीक रस पहरमें अग्नि शान्त हो जाय । तदनन्तर पुटके में घोटकर यथाविधि शरावसम्पुटमें बन्द करके स्वांग शीतल होनेपर उसमेंसे औषधको निकालकर गजपुटमें पलाश, पीपल, या गूलरकी लकड़ियोंकी पुनः आकके दूधमें घोटें और पहिलेकी भांति ही आगमें फूंक दें। औषधको सम्पुट में बन्द करते गजपुटमें ८ पहर आंच दें। एवं इसी प्रकार आक समय ऊपर नीचे इमलोका क्षार रखना चाहिये। के दूध में घोटकर तीसरी पुट १२ पहरकी और इसके सेवनसे प्रमेह नष्ट होता है । चौथी पुट ३२ पहरकी लगावें। इसके पश्चात् ( मात्रा-१ रत्ती।) उसे पुनः आकके दूध घोट घोटकर तीन पुट और दें। इस प्रकार कुल सात पुट लगानेसे रस (र. प्र. सु. । अ. ८; र. चं. । प्रमेह.) तैयार हो जायगा । उसका रंग कबूतरकी गर्दनके हेमबीजविषवनसूतकं समान होगा। इसके सेवनसे समस्त प्रमेह नष्ट होते हैं। बलिवसाऽप्यथ चाभ्रभस्मकम् । नागवल्लिजरसेन मर्दित (मात्रा-१ रत्ती।) कामदं सकलमेहजित्तथा ॥ प्रमेहसेतुरसः शुद्र धतूरेके बीज, शुद्ध बछनाग, वंगभस्म, 'प्रमेहकेतूरस' तथा 'हरिशङ्कररस' देखिये। शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक और अभ्रकभस्म समान For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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