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[६५६] भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[भकारादि सैवाक्षिरोगमभिनवमपनयति विलेपनान्मूनि ।। (४८१७) भृाराजादिलेपः (३) भुईआमलेको स्त्रीके दूधके साथ ताम्रपात्रमें
(र. र. । उपदंशा.) घोटकर शिरपर लेप करनेसे नवीन नेत्राभिष्यन्द | मार्कवस्त्रिफलादन्तीताम्रचूर्णमयोरजः। नष्ट होता है।
| उपदंशं निहन्त्येतद्वामिन्द्राशनियेथा ।। (४९१४) भूस्तृणादियोनिलेपः | भंगरा, हर्र, बहेड़ा, आमला, दन्तीमूल, ताम्र(ग. नि. । वन्ध्या . ५)
चूर्ण और लोहचूर्ण समान भाग लेकर सबको भूस्तृणस्य तु मूलानि वचा मुञ्जातकं तथा। अत्यन्त महीन पीस लें। समभागानि मधुना योनिलेपो निशामुखे । इसका लेप करनेसे उपदंश अत्यन्त शीघ्र शोभनं जनयेत्पुत्रं बलवीर्यसमन्वितम् ॥ नष्ट हो जाता है। गन्धतृणकी जड़, बच और मूंज समान भाग |
(४९१८) भृङ्गराजादिलेपः (४) लेकर सबको अत्यन्त महीन पीसकर शहदमें मिला
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१) कर रातको योनिमें लेप करनेसे बलवीर्यवान् सुन्दर पुत्र उत्पन्न होता है।
भृङ्गराजरसं गृह्य तथा च सुरसादलम् ।
| निष्पावकपटोलानां पत्राणि काचिकेन तु ॥ (४९१५) भृङ्गराजादिलेपः (१)
पिष्ट्वा वातपीडिकानां लेपनं मेहनस्य च ॥ (भा. प्र. । म. खं. क्षुद्ररोगा.)
तुलसीके पत्ते, चांटलीके पत्ते और पटोलके भृङ्गराजकमूलस्य रजन्या सहितस्य च।
पत्ते १-१ भाग लेकर सबका महीन चूर्ण बनाकर चूर्णन्तु सहसा लेपाद्वाराह द्विजनाशनम् ।।
उसमें १ भाग भंगरेका रस मिलावें। ___भंगरेकी जड़ और हल्दी के चूर्णका लेप करनेसे वाराहदंष्ट्र (गुदभ्रंश रोगका एक भेद)
इसे कांजीमें पीसकर लेप करनेसे वातज नष्ट होता है।
प्रमेहपिडिका नष्ट होती हैं। (४९१६) भृङ्गराजादिलेप: (२) (४९१९) भृङ्गविषनाशकलेपः (वृ. नि. र. । त्वग्दोषा.)
( यो. त. । त. ७८) भृङ्गराजहरीतक्योर्मूलमन्तः पुटं दहेत् । नागरं गृहकपोतपुरीषं आरनालेन तल्लेपाच्छेतकुष्ठविनाशनम् ॥
बीजपूरकरसो हरितालम् । भंगरेकी जड़ और हर्रकी जड़ समान भाग | | सैन्धवं च विनिहन्ति विलेपा लेकर दोनोंको बरतनमें बन्द करके जलावें।
दाशु भृङ्गजनितं विषमेतत् ।। इस भस्मको काञ्जी में पीसकर लेप करनेसे सांठ, पालतु कबूतरकी बीट, हरताल और श्वेत कुष्ट नष्ट होता है।
' सेंधा नमक समान भाग लेकर महीन चूर्ण बनावें।
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