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कषायप्रकरणम् ] तृतीयो भागः।
[२३] नोट---'जीवनीय गण' भारत भै. र. द्वितीय | व्याघोसिंहीकलिखिफलसटियुतैः कल्पित भागमें देखिये ।)
स्तुल्यभागैः॥ (२९३३) द्राक्षारसादियोगः । काथो द्वात्रिंशदाख्यध्यधिकदशमहासमि
( हारी. सं. । स्था. ३ अ. १०) पातान्निहन्याच्छूलं कामादिहिकाकसनगुदद्राक्षारसं वा घृतसराय
रुजाध्मानविध्वंसकारी। जलं सितादयं च सरक्तपित्ते । | उरुस्तम्भान्त्रवृद्धिं गलगदमरुचिं सर्वसन्धि । पानेऽथवा चेक्षुरस सिताढय
ग्रहार्तिम् क्षयं च कासं क्षसज निहन्ति ॥ | मातङ्गोंघान्निहन्यान्मृगरिपुरिवचेद्रोगजालंतथैव दाख ( अंगूर) के रसमें घी और खांड | भरंगी, चिरायता, नीमकी छाल, नागरमोथा, मिलाकर पिलानेसे या खांडका शर्बत पिलानेसे कुटकी, बच, सोंठ, मिर्च, पीपल, बासा, इन्द्रायरक्तपित्त शान्त होता है । तथा ईख (गन्ने ) के
| नकी जड़, रास्ना, अनन्तमूल, पटोलपत्र, देवदारु, रसमें खांड मिलाकर पिलाने से क्षतज क्षय और
हल्दी, पाढलकी छाल, अरल (स्योनाक)की छाल, खांसी नष्ट होती है।
ब्राह्मी, दारुहल्दी, गिलोय, निसोत, अतीस, पोख(२९३४) द्राक्षाहरीतकीयोगः
रमूल, त्रायमाणा, कटेली, कटेला, इन्द्रजौ, हरे, (ग. नि. । र. पि:)
बहेड़ा, आमला, और शठी (कचूर) सब चीजें अपहरति रक्तपित्तकण्डू गुल्मं च पैतिक सयः। समान भाग । जीर्णज्वरं च जयति मृद्रीकासंयुता पथ्या ॥ इन ३२ चीजोंके योगको द्वात्रिंशद् या ब
__मुनक्का (दाख ) और हर समान भाग लेकर त्तीसा काथ कहते हैं । यह १३ प्रकारके सन्निपानीके साथ पीसकर खिलानेसे रक्तपित्त, खुजली, पात, शूल, खांसी, हिचकी, बवासीर, अफारा, पैतिक गुल्म, और जीर्णज्वर नष्ट होता है ।। ऊरुस्तम्भ, अन्त्रवृद्धि, गलरोग, अरुचि और सन्धि( मात्रा-६ माशे। अनुपान--बकरीका दूध । )
ग्रह ( गठिया) को नष्ट करता है । (२९३५) द्वात्रिंशदाख्यकाथः
| (२९३६) बादशाङ्गकाथः (१) (यो. र. । सन्नि.; वृ. नि. र. । ज्वर.;
(. यो. त. । त. १२५) यो. त. । त. २०
किरातत्तिक्तकारिष्टयष्टयाह्वाम्बुदपटैः। मार्गीभूनिम्बनिम्बैधनकटकावचाव्योषवासा- | पटोलवासकोशीरत्रिफलाकोटःशुतम् ॥
विशाला। द्वादशाङ्गं नरःपीत्वा विस्फोटेभ्यो विमुच्यते । रास्नानन्तापटोलीसुरतरुरजनीपाटलाटुण्टुकैश्च द्वंदजेभ्यस्त्रिदोषोत्थाद्रक्तजाचहिताशनः ॥ ब्रामीदा-गुडूची त्रिवृदतिविषापुष्करत्रायमाणैः चिरायता, नीमकी छाल, मुलैठी, नागरमोथा,
* तिन्दुकैश्चेति पाठान्तरम् ।
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