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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसमकरणम् ] तृतीयो भागः। [६७७] इन्हें उदश्वित ( दहीमें बराबर भाग पानी । श्रमाध्वमाराध्ययनस्वमानस्माद्विवर्जयेत् । मिलाकर बनाये हुवे तक्र ) के साथ सेवन करनेसे | ताम्बूलं भक्षयेन्नित्यं कर्पूरादिसुवासितम् ।। पाण्डुरोग नष्ट होता है। क्रिया श्लेष्महरी युक्ता वातपित्ताविरोधिनी। ( व्यवहारिक मात्रा ३-४ माशे) लवणं वर्जयेदम्लं दिवानिद्रां तथैव च।। भैरवनाथी पञ्चामृतपपेटी रात्रौ जागरणश्चैव स्त्रीमुखालोकनं तथा। (र. रा. सु.; र. र. स.) सप्ताहद्वयमुत्क्रम्य स्नानमुष्णाम्बुना चरेत् ॥ . पञ्चामृतपर्पटी प्रयोग संख्या ४२८२ देखिये। | व्यायामाचं वर्जनीयं यावन्न प्रकृतिर्भवेत् । (४९६५) भैरवरसः (१) एवं कृतविधानस्तु यः करोत्येतदौषधम् ॥ (भै. र. । उपदंशा.) स एव पापरोगस्य पारं याति जितेन्द्रियः । शुद्धसूतं ग्रहीतव्यं दशगुञ्जकमात्रकम् । पिडका विलयं यान्ति बलं तेजश्च वर्द्धते ॥ त्रिगुणां शर्करां लौहे निम्बदण्डेन मर्दयेत् ॥ रुजा च प्रशमं याति ग्रन्थिशोथश्च शाम्यति । याममात्रं तत्र दद्याच्छ्रेत खदिरचूर्णकम् ।। अस्थां भवति दाढर्यश्च आमवातश्च शाम्यति॥ भैरवेण समाख्यातो रसोऽयं भैरवः स्वयम् ।। सूततुल्यं ततः कुर्यान्मर्दनात् कज्जलोपमम् ॥ विंशतिर्वटिकाः कार्याः स्थाप्याः गोधूमचूर्णके। . शुद्ध शुद्ध पारा १० रत्ती और खांड ३० रत्ती; निःशेष निःसृता ज्ञात्वा पिडकास्ताः कलेवरे। इन्हें एकत्र लोहपात्र में नीम के डण्डे से १ प्रहर भैरवं देवमभ्यर्च्य बलिं तस्मै प्रदाय च। | घोटें । जब पारद के कण न दिखाई दें तब उसमें विधाय योगिनीपूजां दुर्गामभ्यर्च्य यत्नतः॥ १० रत्ती श्वेत कत्थे का चूर्ण मिलाकर मर्दन करें। वटिकास्ताःप्रयोक्तव्या भिषजा जानता क्रियाम। मर्दन करते २ जब कज्जल के समान होजाय दिवसत्रितयं दद्यात्तिस्रस्तिस्रो विजानता ॥ तब उस सबकी बीस गोली बनावें । इन गोलियों चतर्थाद्व कामपयोजना को गेहूं के आटे में रखदें । जब यह देखें कि एवं चतुर्दशदिनैर्नीरोगो जायते नरः॥ उपदंशज विष के कारण शरीर पर सम्पूर्ण पिडपथ्यं शर्करया सार्द्धमुष्णान्नं घृतगन्धि च। कायें निकल आई हैं तब भैरव की पूजा करें तथा कुर्यात्साकांक्षमुत्यानं सकृद्भोजनमिष्यते ।। बलि दें । इसी प्रकार योगिनी तथा दुर्गाकी पूजा जलपानं जलस्पर्श न कदा च न कारयेत् । | करके तत्काल इन गोलियों का यथाविधि प्रयोग दुःसहायान्तु तृष्णायामिक्षुदाडिमकादिकम् ॥ करावें । प्रथम तीन दिन तक प्रतिदिन तीन तीन शौचकार्येऽप्युष्णवारि वाससा प्रोञ्छनं द्रुतम् । गोलियां सेवन करावें । चौथे दिन से प्रतिदिन वातातपाग्निसम्पर्क दूरतः परिवर्जयेत् ॥ एक २ गोली खिलावें । इस प्रकार १४ दिन मेघागमे वा शीते वा कार्यमेतद्विजानता। | करने से मनुष्य नीरोग हो जाता है । पथ्य-खांड मुखरोगे तु संजाते मुखरोगहरी क्रिया ॥ | तथा अल्प घृतयुक्त उष्ण अन्न । यह भोजन भी For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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