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तैलप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[५८५]
अथ बकारादितैलप्रकरणम् ।
(४६८०) बकुलाचं तैलम्
लुचितानां तिलानाश्च दद्यात्तैलाढकद्वयम् ॥ ( भै. र. । मुख.; र. र.; धन्व.; व. से.; च. द. ।
मुखरोगा.; ग. नि. । तैला.) । वातव्याधिषु सर्वेषु रक्तपित्ताश्रयाश्च ये ।। बकुलस्य फलं लोधं वज्रवल्ली कुरण्टकम् ।
व्यापन्नासु च योनिषु शस्तं नष्टे च रेतसि ।
तालुशोषं तृषां दाई पार्श्वशूलममुग्दरम् ॥ चतुरङ्गलबबोलवाजिकर्णारिमाशनम् ॥
हन्ति शोषमस्मारं विसर्प सशिरोग्रहम् । एषां कषायकल्काभ्यां तैलं पकं मुखे धृतम्। आयर्वर्णकरं चैव बलातैलं प्रजाकरम् ।। स्थैर्य करोति चलतां दन्तानां नावनेन च ॥ ६। सेर खरैटाको अच्छी तरह कूटकर १२८
मौलसिरीके फल, लोध, हडसंघरी, पियाबा- 1 सेर पानी में पकावें और ३२ सेर पानी शेष रहने साकी जड़, अमलतासकी छाल, बबूलकी पर छान लें तथा १६ सेर तिलके तैलमें यह छाल, अश्वकर्ण (पलाशभेद ) की छाल,
काथ, ५० तोले खरैटीका कल्क, ५० तोले तुषदुर्गन्धित खैर और असना वृक्षका सार समान
रहित तिल और ६४ सेर दूध मिलाकर मन्दाग्नि
पर पकावें । जब तैलमात्र शेष रह जाय तो उसे भाग मिश्रित ८ सेर लेकर सबको अधकुटा करके
छान लें। ६४ सेर पानीमें पकावें । जब १६ सेर पानी शेष
यह तैल समस्त वातव्याधि, रक्ताश्रित वात, रह जाय तो छान लें और फिर ४ सेर तेलमें
। पित्ताश्रित वात, योनिदोष, तालुशोष, तृषा, दाह, यह काथ तथा उपरोक्त ओषधियोंका समान भाग पार्श्वशूल, रक्तपित्त, शोष, अपस्मार, विसर्प और मिश्रित कल्क २६ तोले ८ माशे मिलाकर काथ शिरोग्रह आदि रोगांको नष्ट करता और आयु जलने तक पकाकर छान लें।
वर्ण तथा प्रजाकी वृद्धि करता है । अल्पवीर्य
पुरुषोंके लिये हितकारी है। इसे मुखमें धारण करनेसे तथा इसकी नस्य
(४६८२) बलातैलम् (२) ( वृहत् ) लेनेसे हिलते हुवे दांत स्थिर हो जाते हैं।
( वा. भ. । चि. अ. २१; ग. नि.१ । तैला.; (४६८१) बलातैलम् (१)
च. सं. | चि. अ. २८; यो. चि. । अ. २३) (ग. नि. । तैला.)
वृहदलायास्तु तुलां चतुद्रोणेऽम्भसः पचेत् । बलाया जातसारायास्तुलां कुर्यात्सुकुट्टिताम् ।।
--गदनिग्रहके अतिरिक्त प्रायः अन्य सभी प्रन्यों
में २५ पल गिलोय और १२॥ पल रास्ना काथ्य पलानि दश पिष्टानि बलायास्तत्र दापयेत् । । द्रव्यांमें अधिक लिखी है।
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