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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [ ६५४ ] भारत - भैषज्य रत्नाकरः । समान भाग लेकर सबको पानीमें पीस कर लेप | लिङ्गं पुरीषैर्महिषस्य पश्चाकरनेसे शंखक ( कनपटीका तीव्र शूल ) नष्ट (४९०४) भल्लातकशोथान्तकलेप: (१) ( वृ. मा. | शोथा. व. से. । शोथा. ) भल्लातः श्वयथुं हन्ति ध्रुवमाश्वत्थधावनात् । महिषीक्षीरपिष्टैर्वा नवनीतसमन्वितैः ॥ भल्लातककृतः शोथस्तिलैर्लिप्तः प्रशाम्यति ॥ भिलावे के स्पर्श से उत्पन्न हुई सूजन पीपल वृक्षकी छालके काथसे धोनेसे या भैंसके दूधमें पिसे हुवे तिलेां को नवनीत ( नौनी घी ) में मिलाकर लेप करनेसे नष्ट हो जाती है । (४९०५) भल्लातकशोथान्तकलेप: (२) ( व. से. । शोथा ) भल्लातक्या जयेच्छोथं सतिलाकृष्णमृत्तिका । माहिषो नवनीतं वा लेपादग्धं तिलान्वितम् ॥ तिल और कालीमिट्टीका अथवा जले हुवे तिलांको भैंसके नवनीत (नैनी घी) में मिलाकर उसका लेप करनेसे भिलावेके स्पर्शसे उत्पन्न सून नष्ट होती है । (४९०६) भल्लातकादिलेप: (१) ( रा. मा. । कर्णरोगा .; धन्व. । वाजीकरणा . ) भल्लातकं बालकमम्बुजिन्याः पत्राणि कृष्णं लवणं च तुल्यम् । दग्ध्वा पुटान्तः स्वरसं निदध्यात्पकस्य तस्मिन्बृहतीफलस्य ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ भकारादि दुद्वर्तितं तेन विलिप्तमात्रम् । पुंसो भवत्युन्मदवाजिमेदूसंकाशमातालमभिप्रमाणम् ॥ भिलावा, सुगन्धवाला, कमलिनीके पत्ते और कालानमक समान भाग लेकर सबको मिट्टी के बरतन में बन्द करके भस्म करें | लिङ्गको भैंसके गोबरसे अच्छी तरह रगड़नेके बाद कटेलीके पके हुवे फलेांके रसमें मिलाकर उपरोक्त भस्मका लेप करनेसे लिंग अत्यन्त पुष्ट और वृहद् हो जाता है । (४९०७) भल्लातकादिलेप: (२) ( रा. मा. । शिरोरोगा . ) भल्लातकै बृहतीफलैर्वा सुश्लक्ष्णपिष्टै बुतैलयुक्तैः । सम्मिश्रितैर्वै मधुना लिप्त - मल्पैर्दिनैः शाम्यति शक्रलुप्तम् ॥ भिलावे अथवा कटेलीके फलको अत्यन्त महीन पीसकर अरण्डीके तेल में मिला लें । इसमें शहद मिलाकर लेप करने से गंज ( इन्द्रलुप्त ) थोड़े दिन में ही नष्ट हो जाता है । (४९०८) भल्लातकादिलेप: (३) ( वृ. नि. र. । ग्रहण्य. ) भल्लातकास्थीनि दन्तीनिम्बकपोतविट् । गुडसौराष्ट्रयमृतजैर्लेपः श्लेष्मा साञ्जये ।। For Private And Personal Use Only भिलावा, हाथीकी हड्डी, दन्ती, नीमकी छाल, कबूतरी विष्टा (बट), गुड़, सौराष्ट्री (फटकी)
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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