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रसमकरणम्
तृतीयो भागः।
[२२५]
(३६०१) नवज्वरमुरारिरसः काथमें बुझावें । ( हरेक पदार्थमें कमसे कम सात
( र. र. स. । उ. खं. अ. १२) बार बुझाना चाहिये ) तत्पश्चात् उससे दो गुने हरश्च गन्धकश्चैव कुनटी च समं समम् ।
गन्धक और शिंगरफको एकत्र मिलाकर पानीके
साथ घोटकर उन पत्रों पर लेप करदें मर्ये कर्कोटिकायाश्च रसेन विनियोजयेत् ॥
और उन्हें नवज्वरमुरारिः स्याद्वल्लं शर्करया सह ।
शराव सम्पुट में बन्द करके उसके उपर सात
कपर मिट्टी कर दें । तत्पश्चात् इस सम्पुटको तण्डुलीयरसश्चानुपानं शर्करयाऽपि वा ॥
सुखाकर ४ पहर तक लवणयन्त्रमें तीब्राग्नि पर गुञ्जाद्वयप्रमाणेन ज्वरान्हन्ति नवान्हठात् ॥
पका और फिर यन्त्र के स्वांग शीतल होनेपर शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक और शुद्ध मनसिल,
| उसमेंसे औषधको निकालकर पीस लें। समान भाग लेकर सबको एकत्र म्वरल करके एक | इसमें से १-१ रत्ती दवा अद्रकके रसके दिन ककोड़ेके रसमें घोटें।
साथ देनेसे नवीन ज्वर नष्ट होता है। इसे खांडके साथ मिलाकर खिलानेसे नवीन
नवज्वरविनाशनरसः ज्वर नष्ट होता है। मात्रा---२ रत्ती । अनुपान-चौलाईकी जड़
(वै. क. दु. । स्क. २ ज्वर.) का काथ या खांडका शर्बत ।
"प्रचण्डरस” देखिये। (३६०२) नवज्वररिपुरसः
(३६०३) नवज्वरहरीवटी
। (वृ. यो. त. । त. ५९; भा. प्र. ख. २; (र. रा. सुं.; र. का. धे.। वर.; रसें. चि.अ.९)
र. रा. मुं. । चर.) तानं पत्रमयं प्रताप्य वहुशो निर्वाप्य पश्चामृते।
रसो गन्धो विपं शुण्ठी पिप्पली मरिचानि च । गोमूत्रेऽग्निजले वलिद्विगुणितं
पथ्या विभीतकं धात्री दन्तीवीजं च शोधितम।। म्लेच्छेन पिष्टेन च ॥
चूर्णमेपां समांशानां द्रोणपुप्पीरसैः पुटे । लिप्त्वा सप्तमृदांशुकैरथ पुनः सामुद्रयामं पचेत्। | वटीं माषनिभां कुर्याद्भक्षयेन्नूतने ज्वरे ॥ यन्त्रे लावणिके नवज्वररिपुः स्याद्गुञ्जया
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध मीठा तेलिया सम्मितः॥
(बछनाग), सोंठ, पीपल, मिर्च, हर्र, बहेड़ा, आमला ( अत्रआईकरसानुपानम् ।)
और शुद्ध जमाल गोटा । सब चीजें समान भाग ताम्रके बारीक पत्रोंको बारबार तपाकर लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और पञ्चामृत में वुझावें, फिर गोमूत्र और चीते के। फिर उसमें अन्य चीजें|का कपड़छन महीन चूर्ण १-पञ्चामृत = गिलोय, गोखरू, मूसली, मुण्डी,
| मिलाकर सबको १ दिन गूमाके रससे घोटकर उर्दके बराबर गोलियां बनावें।
शतावर ।
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