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1- भैषज्य रत्नाकरः ।
अथ पकारादिलेपप्रकरणम्
भारत
(४१५९) पङ्कलेप:
( वै. म. र । पटल ७ ) चिरजलधर भाण्डोद्भूतपङ्कं गृहीत्वा जठरपणनाभौ निक्षिपेन्मूत्रकृच्छ्री । पानी रखनेके पुराने घड़ेके टुकड़ेको पानी के साथ पीसकर उसकी कीचड़सी बना लें ।
इसे पेट, अण्डकोष और नाभिपर लेप करसे मूत्रकृच्छ्र नष्ट होता है । (४१६०) पञ्चकोलादिलेपः
॥
( च. सं. 1 चि. अ. ३० योनिव्या. ) पञ्चकोलकुलत्थैश्च पिष्टैरालेपयेत्स्तनौ । शुष्क प्रक्षाल्य निर्दुश्यात्तथास्तन्यं विशुद्धयति पीपल, पीपलामूल, चव, चीता, सोंठ और कुलथी समान भाग लेकर सबको पानीके साथ पीसकर स्तनोंपर लेप कर दें। जब वह सूख जाय तो उसे धो डालें । इस प्रयोग से दूध शुद्ध हो जाता है।
(४१६१) पञ्चवल्कलादिलेप: (वं. से.; वृ. नि. र.; वृं. मा. भा. प्र. । विद्रधि.) पश्चवल्कलकल्केन घृतमिश्रेण लेपनम् । सर्पिषा शतधौतेन नवनीतेन वा गवाम् ||
सिरस, पीपल, पिलखन, बड़ और बेतकी छाल के महीन चूर्णको सौ बार धुले हुवे गायके या गायके मक्खन में मिलाकर लगानेसे पित्तज अण्डवृद्धि रोग नष्ट होता है ।
(४१६२) पञ्चवल्कलादिलेप: ( यो. र. । वीस. )
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शतधौत घृतविमिश्रः कल्कस्त्वक्पञ्चकस्य लेपेन । बहुदाहकरमुचैरग्निविसर्प विनाशयति ।।
[ पकारादि
पीपल, पिलखन, बेत, बड़ और सिरसकी छाल चूर्णको सौ बार धोये हुवे घी में मिला कर लगाने से अत्यन्त दाह करनेवाला अभिवीसर्प नष्ट होता है ।
श्रेष्ठः
(४१६३) पञ्चशिरीषलेपः
( च. सं. । चि. अ. २५ ) शिरीषफलमूलत्वकुपुष्पपत्रैः समैर्धृतैः । पञ्चशिरीषोऽयं विषाणां प्रवरो बधे ॥ सिरसके फल, जड़, छाल, पुष्प और पत्र समान भाग लेकर पीसकर सबको घृतमें मिलाकर लेप करनेसे विष नष्ट होता है । (४१६४) पञ्चामलको लेपः
( वं. से. । तृषा ; ग. नि. । तृषा. १६ ) कोलदाडिमवृक्षाम्लचुक्रिकाचुक्रिकारसः । पश्चामलको मुखे लेपः सग्रस्तृष्णां नियच्छति ।।
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बेर, अनारदाना, इमली, चुक्र ( शुक्त) और चूकेका रस समान भाग लेकर पहिली तीनों चीज़ोंको महीन पीस लें और फिर सबको एकत्र मिलाकर उसका मुखमें लेप करें । इससे तृष्णा शीघ्र ही शान्त हो जाती है ।