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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
[भकाररादि
१ मास तक भंगरेका स्वरस सेवन करने | ईख (गन्ने, को अनिमें सेककर उसका रस और दुग्धाहार पर रहनेसे बलवर्णयुक्त १०० वर्ष | निकालें और उसमें चूहेकी मीमन मिलाकर रोगी की आयु प्राप्त होती है।
को पिला दें। (४८१३) भृष्टमुद्गादिकषायः
यह प्रयोग मूत्रकृच्छ्रको अत्यन्त शीघ्र नर (ग. नि. । छर्य ; वृ. मा. । छZ.)
कर देता है। कषायो भृष्टमुद्गस्य सलाजमधुशर्करः ।
(४८१५) भेदनीयकषायदशक: छर्घतीसारदाइन्नो ज्वरनः संप्रकाशितः ।।
(च. सं. । अ. ४ सूत्रस्थान) भुनी हुई मूंगके काथमें धानकी खीलांका सुवहार्कोस्बूकानिमुखीचित्राचित्रकचिरचूर्ण तथा शहद और मिश्री मिलाकर पीने से छर्दि, बिल्वशक्निीसकुलादनीस्वर्णक्षीरिण्य इति दशेअतिसार, दाह और ज्वर नष्ट होता है।
मानि भेदनीयानि भवन्ति ॥ (४८१४) भृष्टेक्षुरसपानम्
निसोत, आक, अरण्ड, लांगली (कलिहारी), (वृ. नि. र. । मूत्रकृच्छा .)
दन्ती, चीता, करन, शंखिनी, कुटकी और स्वर्ण भृष्टास्वरसं ग्राह्यमाखुविद्विहितं पिबेत् । क्षीरी । इन दश ओषधियों के समूहको भेदनीय नाशयेन्मूत्रकृच्छ्राणि सब एव न संशयः ॥ । कषायदशक कहते हैं ।
शति भकारादिकषायप्रकरणम् ।
अथ भकारादिचूर्णप्रकरणम्।
(४८१६) भद्रदादिचूर्णम्
| सार सेवन करनेसे अफारा और उदावर्त नष्ट ( वृ. नि. र. । आनाहोदावर्ता.)
होता है। भद्रदारु धनं मूवी हरिद्रा मधुकं तथा।
( व्यवहारिक मात्रा-३ माशे ।) कोलप्रमाणं तु पिवेदन्तरिक्षेण वारिणा ॥ (४८१७) भद्रमुस्तादिचूर्णम् देवदारु, नागरमोथा, मूर्वा, हल्दी और मुलैठी
(वृ. नि. र.। कास.) समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
भद्रमुस्ताकणाचूर्ण समांशं मधुना सह । इसे वर्षाजलके साथ आधा कर्षकी मात्रानु- निहन्ति भक्षितं शीघ्र श्लेष्मकासं न संशयः॥
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