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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ३७४] भारत-भैषज्य रत्नाकरः। [पकारादि २ सेर अण्डी का तैल (काष्ट्रायल) मिलाकर पकावें।। सद्यः प्रशमेयेतैलमेतमात्र विचारणा। जब पानी जल जाय तो तेल को छान लें। इन्द्रियस्य प्रजनन बन्ध्यानाश्च प्रजाकरम् ।। वृद्धानां बालकानाश्च स्त्रीणां राज्ञां हितं परम् । यह तेल कफरोग और समस्त दोषोंको नष्ट पर्वा पीठसपिर्वा पीत्वैतत्संप्रधावति ।। करता है। काय-मूल और पत्रयुक्त सुपक सारयुक्त ६। (४१३९) प्रसारिणीतेलम् (३) । सेर प्रसारणी को कूटकर ३२ सेर पानी में पकावें। (यो. र.; वृ. नि. र. । वातरो.; । यो. त. । त. जब ८ सेर पानी शेष रह जाय तो उसे छान लें। ४०; ग. नि. । तैला. २) ___अन्य द्रव पदार्थ-दही ८ सेर और खट्टी । काञ्जी १६ सेर । समूलपत्रामुत्पाटय जातसारां प्रसारिणीम् । कुट्टयित्वा पलशतं कटाहे समधिश्रयेत् ।। १ कल्क-जवाखार, सेंधा नमक, पीपला मूल वारिद्रोणसमायुक्तं चतुभोगावशेषितम् ।। | और चीतामूल १९-१० तोले । सोंठ २५ तोले, कषायसममात्रं तु तैलमत्र प्रदापयेत् ।।२।। | रास्ना १० तोले, प्रसारणी १० तोले और मुलैठी दनस्तत्राढकं दद्यात् द्विगुणश्चाम्लकाञ्जिकम् ।। १० तोले । भेषजानि तु पेश्याणि तत्रेमानि समावपेत् ॥३. विधि-८ सेर तिल के तेल में उपरोक्त समस्त यवक्षारपले द्वे च सैन्धवस्य पलद्वयम् । पदार्थ मिलाकर मन्दाग्नि पर पकावें । जब तेल द्वे पले पिप्पलीमूलाच्चित्रकस्य पलद्वयम् ।। ४ मात्र शेष रह जाय तो उसे छान लें। शुण्ठी पलानि पश्चैव रास्नायाश्च पलद्वयम् ।। इस की नस्य लेने से वायु नष्ट होता है। प्रसारिणी पले द्वे च द्वे पले मधुकस्य च ॥५. एकाङ्ग और सींग ग्रह, अपस्मार, उन्माद, एतत्सर्वं समालोडय शनैर्मद्वग्निना पचेत् ।। | अग्निमांद्य, त्वचागत वायु, शिरा और सन्धि तथा एतत्मभञ्जने श्रेष्ठं नस्यकर्मणि शस्यते ।। अस्थिगत वायु, वातज शुक्रविकार और वातज एकागग्रहणं वापि सर्वाङ्गग्रहणं तथा । | रजोदोष, इसके उपयोग से नष्ट हो जाते हैं। अपस्मारं तथोन्मादं विद्रधि मन्दवह्निताम् ।। । - इसे सेवन करनेसे पङ्गु को दौड़ने की शक्ति त्वग्गताश्चापि ये वाताः शिरासन्धिगताश्च ये। , " प्राप्त होती है। अस्थिसन्धिगता ये च ये च शुक्रातवे स्थिताः सर्वान्वातामयान्नूनं नाशयत्येव सर्वथा। | यह तैल वात व्याधि से पीड़ित मनुष्यों, हयं नरं गजं वापि वातजर्जरितं भृशम् ॥ घोड़ों और हाथियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। यो, र. और वृ. नि. र. में श्लोक संख्या ४ तथा इस के सेवन से इन्द्रिय बलवान होती हैं गदनिप्रहमें श्लोक सं. ५ में कथित औषधे नहीं हैं। और बन्ध्या स्त्री गर्भ धारण करती है। For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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