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चूर्णप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[३०१]
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खांसी, ज्वर, हिचकी, श्वास और तिल्ली नष्ट । (३९४२) पिप्पलीयोगः होती है।
(वृ. मा.; वं. से.। उदररो.) __ यह चूर्ण कण्ठके लिये हितकारी तथा | पलाशक्षारतोयेन पिप्पली परिभाविता । बालकांके लिये उपयोगी है।
गुल्मप्लीहार्तिशमनी वह्निदीप्तिकरी मता ॥ ( मात्रा--१-१॥ माशा ।)
पलाश ( ढाक ) की भस्मको छःगुने पानी में (३९४०) पिप्पलीचूर्णयोगः
घोलकर क्षार बनानेकी विधिसे (रैनी चढ़ाकर ) ( रा. मा. । उदर.) | २१ बार छान लें। इस पानी में पीपलके चूर्णको यः सप्तरात्रत्रितयं सुधायाः
(कई दिन तक) धोटें और फिर सुखाकर सुरक्षीरेण चूर्ण मृदितं कणाया।
| क्षित रक्खें। लेढि प्रकामं मधुरश्च भुङ्कते
यह चूर्ण गुल्म और तिल्ली नाशक तथा अग्नि तस्योदरच्याधिरुपैति नाशम् ॥
वर्द्धक है। पीपलके चूर्णको सेंड ( सेहुंड ) के दूधमें | ( मात्रा-४-६ रत्ती । अनुपान शहद ।) घोटकर ३ सप्ताह तक सेवन करने से समस्त उदर (३९४३) पिप्पल्यादिक्षारम् व्याधियां नष्ट हो जाती हैं।
(च. सं. । चि. अ. १५ ग्रह.) पथ्य-मधुर पदार्थ ।
समूलां पिप्पली पाठां चव्येन्द्रयवनागरम् । ( मात्रा--४-६ रत्ती।) (३९४१) पिप्पलीमूलादिप्रयोगः
चित्रकातिविषे हिङ्गु श्वदंष्ट्रां कटुरोहिणीम् ।। (ग. नि. । शूला.)
वचां च कार्षिकान् पञ्चलवणानां पलानि च । कणामूलमथैरण्ड चित्रकं विश्वभेषजम् ।
दध्नः प्रस्थद्वये तैलसर्पिपोः कुडवद्वये ॥ हिङ्गसैन्धवसंयुक्तं सद्यः शूलहरं परम् ।। चूर्णीकृतानि निष्काथ्य शनैरन्तर्गते रसे।
पीपलामूल, अरण्डमूल, चीता, सांठ, भुनी- अन्तधूम तता दग्ध्वा चूण कृत्वा घृताप्लुतम् ।। हुई हींग और सेंधा नमक समान भाग लेकर चूर्ण
पिबेत्पाणितलं तस्मिञ्जीर्णे स्यान्मधुराशनः । बनावें ।
वातश्लेष्मामयान्सर्वान् हन्याद्विषगरांश्च सः ॥ इसे ( उष्ण जलके साथ ) सेवन करनेसे पीपल, पीपलामूल, पाठा, चव, इन्द्रजौ, शूल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।
सांठ, चीता, अतीस, हींग, गोखरु, कुटकी और (मात्रा-४-६ रत्ती।)
बच ११-१। तोला तथा सेंधा नमक, सञ्चल नमक, १-वृन्दमाधव तथा भावप्रकाशमें श्लोक भिन्न
विड लवण, काच लवण और सामुद्र लवण ५-५ है. योग यही है।
तोले लेकर सबको कूटकर चूर्ण बनावें और फिर
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