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कुaीरशृङ्गीकटुकारसाभिः
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[ ६१८ ]
(४७९३) भार्ग्यादिकाथः (८)
( भा. प्र. म. ख. ज्वरा ; वृ. नि. र. । सन्नि. ) भाङ्गजया पौष्करकण्टकारी कटुत्रिकोग्रावनकुण्डलीभिः
भारत - मैषज्य रत्नाकरः ।
( हा. सं. । स्था. ३ अ. १२ ) भार्ग्याच नागपिप्पल्याः पिबेत् कार्य
सुखोष्णम् कफे का प्रतिश्याये श्वांसे हृद्रोगसञ्ज्ञके ॥
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[ अकारादि
भरंगी और गजपीपलका मन्दोष्ण काथ पीनेसे कफ, खांसी, प्रतिश्याय स्वास और हृद्रोग नष्ट होता है ।
कृतः कषायः किल कर्णकः ॥
भरंगी, अरणी, पोखरमूल, कटेली, सोंठ, मिर्च, पीपल, बच, जंगली जिमीकन्द, काकड़ासिंगी, कुटकी और रास्ना समान भाग लेकर काथ बनावें ।
यह काथ कर्णक सन्निपातको अवश्य नष्ट कर देता है
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(४७९४) भार्ग्यादिकाथ: (९) ( च. द.; ग. नि. । ज्वरा. ) भाङ्ग पुष्करमूलं च रास्नां बिल्वं यवानिकाम् । नागरं दशमूलं च पिप्पलीं चाप्सु साधयेत् ॥ सन्निपातज्वरे देयं हृत्पार्श्वानाहशूलिनाम् । कासश्वासाग्निमन्दत्वं तन्द्रीं च विनिवर्तयेत् ॥
भरंगी, पोखरमूल, रास्ना, बेलकी छाल, अजवायन, सोंठ, दशमूल और पीपल समान भाग लेकर काथ बनावें ।
चिरायता और सेठका कल्क खाकर ऊपरसे पुनर्नवा ( साठी - बिसखपरे ) का काथ पीने से इसके सेवनसे सन्निपात ज्वर, हृदय और सर्वाङ्गगत शोथ अवश्य नष्ट हो जाता है । पसलीका शूल, आनाह, खांसी, श्वास, और तन्द्रा नष्ट होती है । (४७९५) भार्ग्यादिकाथ : (१०)
अग्निमांद्य
(४७९८) भूनिम्बादिकषायः (१)
(बृ. नि. र. । ज्वरा. )
(४७९६) भाग्यदिगणः
(व. से. । ज्वरा. ) भाfपुष्करमूलञ्च मुस्तकं कण्टकारिका । त्रिकण्टकवृहत्यौ च कर्णिनी नागरैः श्रुतैः ॥ re भाग्यदिको नाम्ना पित्तश्लेष्मज्वरापहः । हृल्लासारोचकच्छर्दितृष्णादाहविबन्धनुत् ||
भरंगी, पोखरमूल, नागरमोथा, कटेली, गोखरु, बड़ी कटेली (बनभण्टा), कर्णिनी और सांठ समान भाग लेकर काथ बनावें ।
यह काथ पित्तकफज ज्वर, हल्लास, अरुचि, छर्दि, तृष्णा, दाह और विबन्धको नष्ट करता है । (४७९७) भूनिम्बादिकल्कः
(वं. से.; वृ. नि. र. । शोथा. ) भूविम्बविश्वकल्कं जग्ध्वा पीतः पुनर्नवाकाथः । अपहरति नियतमाशु श्वयथुं सर्वाङ्गजं नृणाम् ॥
भूनिम्बतिक्काजलचन्दनं च
धानेय पथ्या दशमूलसङ्काः । बेरविश्वाकरमर्दका च
एषां शृतं पित्तमरुज्ज्वरेष्टम् ॥
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