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आसवारिष्टमकरणम् ]
सृतीयो भागः।
[८७]
(१०-१० तोले) और ६। सेर हर लेकर सबको | प्रमेहान्मूत्रकृच्छ्राश्च वातरोगान्सुदारुणान् ।। अधकुटा करके ४ द्रोण (१२८ सेर) पानीमें | ग्रहण्यर्चाविकारांश्च देवदासवो जयेत् ॥ पकावें । जब १ द्रोण पानी शेष रह जाय तो उसे देवदार ५० पल, बासा २० पल, इन्द्रजौ, छानकर ठण्डा करलें और उसमें २०० पल (१२॥ दन्तीमूल, मजीठ, तगर, हल्दी, दारु हल्दी, रास्ना, सेर) गुड़ और २०-२० तोले शहद, तथा फूल | मोथा, सिरसकी छाल, बायबिडंग, खैरसार और प्रियंगु, पीपल और बायबिडंगका चूर्ण मिलाकर | अर्जुनकी छाल, १०-१० पल; गिलोय, चीता, चिकने मटकेमें भरदें और उसका मुंह बन्द करके सफेद चन्दन, अजवायन, मांसरोहिणी और कुड़ेकी १५ दिन तक रक्खा रहने दें, पश्चात् निकालकर छाल ५-५ पल (२५-२५ तोले ) लेकर छानलें और बोतलेमें भरकर रख दें। सबको अधकुटा करके ८ द्रोण (२५६ सेर ) ___ यह आसव ग्रहणीविकार, पाण्डु, बवासीर, पानीमें पकावें; जब १ द्रोण ( ३२ सेर ) पानी कुष्ठ, वीसर्प, प्रमेह, रक्तपित्त और कफ नाशक तथा शेष रह जाय तो उसे छान कर ठण्डा करलें और स्वर और वर्णको ठीक करने वाला है। फिर उसमें १६ पल (१ सेर-८० तोले ) धा.
(मात्रा २ तोले । भोजनके बाद पानीमें डाल- यके फूलोंका चूर्ण, १८॥ सेर शहद तथा ४ कर पीना चाहिए।)
पल त्रिजातक ( दालचीनी, तेजपात, इलायची), (३१२७) देवदासवः
२ पल त्रिकुटा (सोंठ, मिर्च, पीपल ), और २-२ (ग. नि.; शा. ध. । आसवा.; भै. र. । प्रमे.) पल ( १०-१० तोले ) नागकेशर तथा फूलदेवदारु तुलार्धे तु वासायाः पलविंशतिः। प्रियंगु का चूर्ण मिलाकर चिकने पात्रमें भरकर शक्राहदन्तीमजिष्ठास्तगरं रजनीद्वयम् ॥ उसका मुख बन्द करके १ मास तक रक्खा रहने रास्ना मुस्तं शिरीषं च कृमिघ्नं खदिरार्जुनौ।। दें। तत्पश्चात् निकालकर छान लें। भागान्दशपलान्कृत्वा गुडूच्यश्चित्रकस्य च ॥ । यह " देवदासिव " प्रमेह, मूत्रकृच्छू, वातचन्दनस्य यवान्याश्च रोहिण्या वत्सकस्य च । व्याधि, ग्रहणीविकार, और अर्श को नष्ट करता है। भागान्पश्चपलानेतानष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत् ॥ ( मात्रा-२ तोले । पानीमें डालकर प्रातःद्रोणशेषे कषाये तु पूते शीते प्रदापयेत् । काल पीना चाहिये ।) धातक्या षोडशपलं माक्षिकस्य तुलात्रयम् ॥ । (३१२८) द्राक्षारिष्टः (द्राक्षासव:) (१) चतुःपलं त्रिजाताच व्योषस्य च पलद्वयम् । (३. यो. त. । त. ७६; यो. त. । त. २७) पलद्वयं केशरस्य प्रियङ्गोश्च पलद्वयम् ॥ शा. ध. । आसव.; भै. र.'; यो. र. । यक्ष्मा. घृतभाण्डे निदध्याच्च मासमेकं प्रयत्नतः।
यो. चिं. । मिश्रा.)
१-शा. ध.; मे. र. यो. चि. म.: तथा यो. त. में धायके फूल नहीं लिखे । यह योग भिन्न भिन्न प्रन्योंमें मृद्वीकासव, द्राक्षासव, मृवीकारिष्ट और द्राक्षारिटादि भिन्न भिन्न नामोंसे लिखा है।
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