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[४३४]
भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[पकारादि
हर्र, लोहभस्म और सांठ के समान भाग श्वेता अपराजिता (सफेद फूलकी कोयल) मिश्रित चूर्णको शहद और घीके साथ सेवन | पाठामूल, बच और सफेद साठी (पुनर्नवा ) को करनेसे त्रिदोषज परिणाम शूल नष्ट होता है। पानीके साथ पीसकर उसकी एक लम्बी मूषा बनावें पथ्यादिलोहम्
और उसमें शुद्ध पारद अलकर उसे एक कपड़ामट्टी
की हुई हांडीमें रखकर उसके ऊपर ४० तोले (च. सं.; च. द. । कामला)
पिसा हुवा नमक डाल दें एवं हांडीके मुखको किसी " अयोरजादियोग" प्र.सं. ७४ देखिये।
| गहरे ढकनेसे अच्छी तरह बन्द कर के उसे पथ्यादिरस:
| आगपर चढ़ा दें। हाण्डीके ऊपरवाले ढकनेमें( वृ. नि. र. । शूल.) पानी भर दें और फिर उसके नीचे ३ पहर शूलगजकेसरी ( शूलद्विपन्नीवटी ) देखिये। तक तेज़ आंच जलावें । तदनन्तर हाण्डीके स्वांग (४३०८) परहितरसः
शीतल होने पर उसमेंसे मूषाको निकाल कर उसके
भीतरसे सुवरके बालोंके बुरुशंसे पारदभस्म को ( र. र. स. । अ. २. )
निकाल लें। श्वेता पाठाजटा श्वेता श्वेता चैव पुनर्नवा। यदि पारद की भस्म अच्छी तरह न हुई हो तो पिष्टवा जलेन तत्कल्कैः प्रकुर्यान्त्रालमूषिकाम् ॥ एकबार फिर ऐसे ही अग्नि दें। स्थालीमध्ये च तां क्षिप्त्वा क्षिपेत्संशोधितं ।
तदनन्तर वह रस, अतीस, शुद्ध बछनाग,
रसम् । त्रिकुटा, त्रिफला और शुद्ध गन्धक का समान-भाग क्षिपेदुपरि सम्पेष्य द्वयञ्जलिममितं पटुम् ।। मिश्रित चूर्ण १२ भाग लेकर उसे ३२ भाग गुड़ पिधानं तन्मुखे दत्त्वा सनिरुध्याऽतियत्नतः। में मिलाकर १२-१२ रत्तीकी गोलियां बनालें । अधस्ताज्ज्वालयेद्वहिं पिधान्यामम्बु निक्षिपेत् ।।
। इसके सेवनसे समस्त रोग और विशेषतः यामत्रितयपर्यन्तं जातेऽथ शिशिरे ततः।।
| समस्त प्रकारके कुष्ठ नष्ट होते हैं। क्रोडकेशैः समाकृष्य मृतं पारदमाहरेत् ॥
। (४३०९) पर्णखण्डेश्वरः न चेदेतावता भस्म पुनरेव पुटेद्रसम् ।। तस्मातिविष विषं कृमिहरं व्योषोत्तमा गन्धर्ज,
(र. रा. सु.; भै. र. । ज्वरा.) चूर्ण द्वादशहाटकं खलु गुडो द्वात्रिंशदंशोन्मितः। समांशं मर्दयेत्खल्ले रसं गन्धं शिलां विषम् । तत्सर्व परिचूर्णितं प्रतिदिनं वल्लैश्चतुभिर्मितं, निर्गुण्डीस्वरसैर्भाव्यं त्रिवार चाकद्रवैः ।। चेत्यं हन्ति समस्तरोगनिवहं नागं गरुत्मानिव। गुञापादं स्थितं पणे ज्वरं हन्ति महाद्भुतम् ॥ विशेषात्सर्वकुष्ठन्नो रसोऽयं परिकीर्तितः। शुद्धपारा, गन्धक, मनसिल और बछनागका ख्यातः परहितो नाम्ना भानुना भूरिभानुना ॥ चूर्ण समान-भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली
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