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कषायप्रकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[१२७]
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(३२६४) धान्यपश्वकम्
धनिया, अतीस, सुगन्धबाला, अजवायन, (भै. र.; वं. से.; वै. रह.; ग. नि.; र. र.; च. मोथा, सोंठ, खरैटी, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी और बेलद.; वृं. नि. र.; वृं. मा.; भा. प्र.। अतिसार; यो. चि.। अधि. ४; वृ. यो. त. । त.
| गिरी का काथ दीपन पाचन है । ( इसे अतिसार ६४, शा. सं. । म. अ. २) और संग्रहणीमें देना चाहिये । ) । धान्यकं नागरं मुस्तं बालकं बिल्वमेव च । आमशूलविबन्धघ्नं पाचनं वहिदीपनम् ॥
(३२६७) धान्यादिजलम् इदं धान्यचतुष्कं स्यात्पत्ते शुण्ठी विना पुनः॥ (वं. से.; यो. र. । अति.) __धनिया, सोंठ, नागरमोथा, सुगन्धबाला, और बेलगिरी । इन पांचों के योगको धान्य पञ्चक
धान्योदीच्यशृतं तोयं कहते हैं । यह काथ आम, शूल और विबन्धयुक्त तृष्णादाहतिसारवान् । अतिसार नाशक तथा दीपन और पाचन है ।। ताभ्यामेव सपाठाभ्यां
यदि इसमें से सोंठ कम कर दी जाय तो सिद्धमाहारमाचरेत् ॥ इसका नाम 'धान्यचतुष्क' हो जाता है। यह
तृष्णा और दाह युक्त अतिसारमें धनिये और काथ पित्तातिसारको नष्ट करता है ।
सुगन्धबालेका पानी पिलाना चाहिये तथा धनिया, (३२६५) धान्यादिक्काथः (१)
सुगन्ध बाला और पाठा के पानीसे आहार बना(यो. र. । अति.) धान्यकातिविषामुस्तागुडूचीबिल्वनागरैः।।
कर देना चाहिए । दत्तः कषायः शमयेदतिसारं चिरोत्थितम् ॥ ( समान भाग मिली हुई औषधे १। तोला अरोचकामशूलास्रज्वरघ्नः पाचनः स्मृतः॥
पानी २ सेर । शेष काथ १ सेर । ) ___ धनिया, अतीस, नागरमोथा, गिलोय, बेलगिरि और सोंठका कोथ पीनेसे पुराना अतिसार,
(३२६८) धान्यादियोगः अरुचि, आम, शूल, रक्तातिसार और ज्वर नष्ट
( भा. प्र. । म. ख. बाल.) होता है। यह काथ पाचन भी है।
धान्यं च शर्करायुक्तं तण्डुलोदकसंयुतम् । (३२६६) धान्यादिकाथः (२)
पानमेतत्मदातव्यं कासश्वासापहं शिशोः ।। (वं. से.; वं. मा.; यो. र.; ग. नि. । ग्रहण्य.; ___वं. से । अति.)
धनिये को चावलों के पानीमें पीसकर उस धान्यकातिविषोदीच्ययवानीमुस्तनागरम। में खांड मिलाकर पिलानेसे बालकोंकी खांसी और बला द्विपर्णी बिल्वं च दद्यादीपनपाचनम् ॥ । श्वास नष्ट होते हैं ।
इति धकारादिकषायप्रकरणम् ।
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