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मन्दाग्निमें दबा दें । जब वे अच्छी तरह स्वेदित हो जायं तो निकालकर उनकी छाल उतार लें ।
इसमें से जरा जरासा टुकड़ा मुंह में रखकर रस चूसनेसे खांसी नष्ट होती है । (४५६४) विभीतकादिकाथः
भारत - भैषज्य रत्नाकरः ।
(ग. नि. । ज्वर. )
बिभीतो व्याधिघातथ कटुका त्रिफला निशा । काथो हन्ति तृषां दाहं ज्वरं च विषमं द्रुतम् ॥
बहेड़ा, अमलतास, कुटकी, हर्र, बहेड़ा, आमला और हल्दोका काथ तृषा, दाह और विषमज्वरको नष्ट करता है । (४५६५) बिभीतकादिकाथः
(बृ. मा.; व. से.; वृ. नि. र. | नेत्र.; यो. र. नेत्र. ) farida शिवाधात्री पटोलारिष्टवासकैः । काथो गुग्गुलुना पेयः शोफशूलाक्षिपाकहा ।।
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बहेड़ा, हर्र, आमला, परवल, नीमकी छाल और बासेके क्वाथमें गूगल मिलाकर पीनेसे शोध और शूयुक्त नेत्रपा नष्ट हो जाता है । (४५६६) बिल्वपञ्चकक्काथः
(भै. र. । ज्वरा. )
शालपर्णी पृश्निपर्णी बला विल्वं सदाडिमम् । विल्वपञ्चकमित्येतत् काथं कृत्वा प्रदापयेत् ॥ अतिसारे ज्वरे छद्य शस्यते विल्वपञ्चकम् ॥
शालपर्णी, पृष्टपर्णी, खरैटी, बेलछाल और अनारकी बकलीका काथ अतिसार, ज्वर और छार्दका नाश करता है
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। (४५६७) बिल्वपत्ररसादियोगः
[ बकारादि
(बृ. मा. व. से., यो. र.; वृ. नि. र. 1 शोथा.) बिल्वपत्ररसं पूतं सोषर्ण श्रययौ त्रिदोषजे । विट्स चैव दुर्नाम्नि विदध्यात्कामलालु च ॥
बेलपत्र रसको छानकर उसमें काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर पीने से त्रिदोषज शोथ, मलावरोध, अर्श और कामलाका नाश होता है । (४५६८) बिल्वमूलादिकषायः
( ग. नि. । मूत्राघात . ) बिल्वारग्वधमूलानां मूत्रकृच्छ्री दिनत्रयम् । शृतं शीतं पिबेत्सम्यक्कषायं सम्प्रसाधितम् ॥
बेल और अमलतासकी जड़के काथको ठण्डा करके ३ दिन तक पीने से मूत्रकृच्छ्र रोग नष्ट हो जाता है
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(४५६९) बिल्वमूलादिकाथ:
( व. से. । बाल. ) बिल्वमूलकषायेण लाजाचैव सशर्कराः । आलोय पाययेद्वालं छतीसारनाशनम् ॥
वेलकी जड़की छालके काथमें धानकी atitar चूर्ण और खांड मिलाकर उसे अच्छी तरह आलोडित करके पिलाने से बालकोंकी छर्दि और अतिसारका नाश होता है । (४५७०) बिल्वशलाटुयोगः
( ग. नि.; वृ. मा. । ग्रहण्य. )
श्रीफलशलाटुकल्को नागरचूर्णेन मिश्रितः
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सगुडः । ग्रहणीगदमत्युग्रं तक्रभुजां सम्मतो जयति ॥