________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अञ्जनपकरणम् ]
हतीयो भागः।
[९७]
-
अथ दकाराद्यजनप्रकरणम्
(३१६४) दक्षाण्डत्वकायञ्जनम् । (३१६६) दारिसक्रिया (ग. नि. । नेत्ररो.)
(वं. से. । नेत्ररोगा.)
दावीपटोलं मधुकं सनिम्बं पद्मकोत्पलम् । दक्षाण्डत्वग्विशालाशकाचचन्दनगैरिकैः। प्रपोण्डरीक चतानि पचेत्तोये चतर्गुणे ॥ तुल्यैरञ्जनयोगोऽयं पुष्पार्मादिविलेखनः ॥ विपाच्य पादशेषन्तु तत्पुनः कुडवं पचेत् ।
मुरगीके अण्डेके छिलके, मनसिल, शंख, काच, शीते तस्मिन्मधुसिते दद्यात्पादांशिके ततः ।। लाल चन्दन और गेरु समान भाग लेकर सुरमेकी रसक्रियैषा दाहाश्रुरोगरक्तरुजापहा ॥ भांति महीन पीसें। .
दारु हल्दी, पटोल, मुलैटो, नीमकीछाल, पनाक, ___इसे आंख में लगानेसे नेत्रफूला और अर्मादि । कमल, और पुण्डरिया प्रपौण्डरीक ) । सब चीजें नष्ट होता है।
समान भाग लेकर अधकुटा करके आठ गुने पानीमें
पकावें । जब चौथा भाग पानी शेष रह जाय तो (३१६५) दन्ततिः
उसे छानकर पुनः पका और गाढ़ा होने पर ठण्डा (भै. र; वं. से; च. द.; ग. नि; धन्व; र. का. धे. । करके उसमें उसका चौथा भाग शहद और मिश्री
नेत्ररो.; वा. भ. । उ. अ. १०) (हरेक आठवां भाग ) मिलादें। दन्तैर्दन्तिवराहोष्टगवाश्वाजखरोद्भवैः।
इसे आंखमें आंजनेसे दाह, आंसु बहना सशङ्गमौक्तिकाम्भोधिफेनैर्मरिचपादिकैः॥ और पित्तज नेत्र रोग नष्ट होते हैं । क्षतशुक्रमपि व्याधि दन्तवर्तिनिवर्तयेत् ॥ (३१६७) दाांद्यअनम् ____ हाथी, सुवर, ऊंट, गाय, घोड़ा, बकरा और | (यो. र. । नेत्र.) गधेका दांत तथा शंख, मोती और समुद्रफेन १-१ दारूवरामधुकमम्भसि नारिकेले भाग और इन सबके चूर्णसे चतुर्थाश काली मिर्चका पक्त्वाऽभागपरिशिष्टरसं पुनस्तम् । चूर्ण लेकर सबको पानीके साथ घोटकर बत्तियां सान्द्रं विपाच्य शशिसैन्धवमाक्षिकाढयम् बनावें।
युश्यादणातितिमिरार्तिषु पित्तजेषु ॥ यह 'दन्तवर्ति' अणशुक्र को भी नष्ट कर देती है। दारुहल्दी, हरे, बहेड़ा, आमला और मुलैठी। ___नोट-सब चीज़ोंको अलग अलग महीन पीस- सब चीजोंका चूर्ण १-१ भाग लेकर आठ गुने कर तोलना चाहिए।
| नारयलके पानीमें पकायें और जब आठवां भाग
For Private And Personal Use Only