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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसप्रकरणम् ] तृतीयो भागः । [ ४५७ ] ऊपरकी हांडी में जा लगे | कुछ निस्सार भस्म बचेगी । जब यह बात । सुवर्णको लेकर पारद स्थिर है कि पारदकी तरह सुवर्ण ऊपर की और फिर सुवर्णका भार बढ़ भी जाय तो उसके हाँडीमें उड़कर नहीं जा सक्ता तब यहांपर कोई बुभुक्षित होने में शङ्का नहीं । यह बुभुक्षावधि विद्वान् यह शङ्का नहीं कर सक्ता है कि पारदमें जैसी मैंने अनुभूत की थी वही वैद्यकी सेवामें सुवर्ण जीर्ण नहीं होकर ऊपरकी हाँडीके तलस्थालिखी है । नमें उड़कर जा लगा है। यहां पर कितने ही विद्वानों की यह शङ्का है कि यह बात तो ठीक है कि सुवर्ण उड़नेवाली चीज नहीं है परन्तु विषोपविषमें मर्दन करनेसे तथा क्षारवर्ग और अम्लवर्ग में स्वेदन करनेसे पारद इतना प्रबलशक्तिक हो गया है कि इसकी सहायता पाकर सुवर्ण भी ऊपरकी हांडी में पारदके साथ ही साथ जा लगे तो बुभुक्षितपारदकी क्या परीक्षा ? इस शङ्काका समाधान यह है कि जिस समय पारदमें सुवर्णग्रास नहीं दिया था उस समय जितनी पारदकी तौल थी उतनी ही तौल पारद में सुवर्णमास | देनेके तथा डमरुयन्त्रमें पारदको उड़ानेके बादभी बनी रहे तो उक्त शङ्काका अवकाश नहीं हो सकता । अर्थात् मेरा अनुभव ऐसा है कि पारद में जहां तक सुवर्णका भार रहेगा वहां तक पारदकी बुभुक्षाविधिमें अवश्य कुछ न्यूनता है । परन्तु कितने विद्वान् तो ऐसा मानते हैं कि पूर्वोक्त प्रकारसे सम्पूर्ण बुमुक्षाविधि सम्पादन करनेके बाद पारदको डमरुयन्त्र में रखकर उड़ावे, वह पारद सुवर्णको लेकर ऊपर की हाँडीमें जा लगे उस अवस्था में सुवर्णका भार बढ़ भी जाय तो भी वह पारद उत्तम बुभुक्षित समझा जा सकता है । तात्पर्य यह है कि पारद में सुवर्णको घोटनेपर भार बढ़ जाय तो उसको बुभुक्षित नहीं कह सकते किन्तु | की गई है । ) ( यह हिन्दी टीका रसायनसार से | उद्धृत ५८ पाठकवृन्द ! पारद की अपार महिमा है। देखिये भगवती सूत्र आदि जैनसिद्धान्तके आ ग्रन्थ क्या कह रहे हैं। जैन सिद्धान्त शुभाशुभ कर्म - वर्गणाओंको मूर्तिस्वरूप मानता है, इसलिये वहांपर शङ्का हुई कि यदि कर्म वर्गणा मूर्त्तिस्वरूप हैं तो आत्मा प्रदेश पर बैठकर संघातरूप क्यों नहीं हो जाती तथा उनका भार आत्मामें क्यों नहीं बढ़ता ! इसके उत्तर में लिखा है कि जैसे १ तोला पारदमें १०० तोले सुवर्ण लीन हो जाता है। तथापि सुवर्णका भार बढ़ता नहीं है, और भी बढ़कर बात यह है कि फिर उस सुवर्णको निकालना चाहें तो निकाल भी सक्ते हैं; तैसे ही आमा प्रदेशों पर कर्मवर्गणा इकट्ठी होती जाती हैं और परस्पर लीन होती जाती हैं तथापि उनका भार नहीं बढ़ता, और केवल ज्ञानरूपी दीपक जब जागरूक होता है तब अन्धकारकी तरह वे कर्म - वर्गणा आत्मा से निकल कर दूर हो जाती हैं । ऐसी ऐसी बातें शात्रोंसे तथा विद्वानांसे मैंने बहुत सुन रक्खी हैं, परन्तु यह ग्रन्थ अनुभूत बातको लिख रहा है इस लिये मैं उन समस्त बातांको लिखकर आप लोगों का समय नष्ट नहीं कर सक्ता । For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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