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[४२०] भारत-भैषज्य रत्नाकरः।
[पकारादि विषाय कज्जलीं श्लक्ष्णां क्षिप्त्यात लोहपात्रके अग्निमान्य विशेषेण इन्तीयं पर्पटी ध्रुवम् । द्वाक्येहदराबादुमिश्वाऽथ निक्षिपेत् ॥ एवं समूब दातव्या रोगेषु भिषगुत्तमैः ।। हेमादिपालोहाना भस्म चाऽय बिलोरयेत् । | वत्तद्रोगहरेर्योगैस्तत्तद्रोगाऽनुपानतः । अथ तत्कदलीपत्रे गोमयस्ये विनिक्षिपेत् ॥ क्षयादिसर्वरोगनी स्यात्पञ्चामृतपर्पटी। पत्रेणान्येन संच्छाय कुर्याधत्नेन पर्पटीन् । | तेलसर्पपविलाऽम्लकारवेल्लकुमुम्भकम् । तस्योपरि क्षिपेत्सयो गोमयं स्तोकमेव च ॥ त्यजेत्पारावतं मांसं वृन्ताक कुक्कुटं तथा ॥ ततः शीतं समाहत्य पटपूतं विधाय च ।।
___शुद्ध स्वर्ण १ कर्ष (१। तोला ), शुद्ध निक्षिपेवंदडायां पालिकायां ततः परम् ॥ ।
चांदी २ कर्ष, शुद्ध ताम्र ३ कर्ष, अभ्रक सत्व ४ पूर्वपदरागामिः द्रावयेच्छनैः।
कर्ष और शुद्ध लोह ५ कर्ष तथा ५-५ माशे शुद्ध तुल्याऽऽलकशिलागन्ध पलार्धविरभावितम् ।।
सीसा और बंग लेकर सबको एकत्र गलाकर ठण्डा पूर्वपर्पटिका तुल्यं तस्मादल्प मुहुर्मुहुः ।।
करें और फिर उसे रेतीसे रितवाकर बारीक पूर्ण जारयेत्पालिकामध्ये दखेत च न पर्पटी॥
| करावें । तत्पश्चात् उसमें ५-५ तोले शुद्ध गन्धक पालिकेतिविनिर्दिष्टा स्नेहक्षेपणयन्त्रिका ।
मनसिल और हरतालका चूर्ण मिलाकर १ दिन जीर्णे सालादिके चूर्णे पटपूतं विधीयताम् ।।
अम्लवर्ग में घोटकर छोटी छोटी टिकिया बनाकर पूतीकरअषट्कोलव्याघ्रीशोभाअनातिभिः ।
सुखा लें और फिर उन्हें ५-५ तोले सोनामक्सी, इतः पचपलैः कायं षोडशांशाऽवशेषितम् ॥
सुरमा, हरताल, मनसिल भऔर गन्धकके पूर्णक तेन काणेन संस्वेद्य शोषयेत्सप्तपा हि ताम् ।
बोच में रखकर शरावसम्पुट करके गजपुटमें फूंक विपतिन्दुफलोद्भूत रसैनिर्गुण्डिकोत्यितैः॥
| दें। जब स्वांग शीतल हो जाय तो सम्पुटमें से विभाज्य पलिकामध्ये लिप्त्या बदरपाबके। टिकियों को निकालकर नीबू आदिके रसमें पोटईपत्मस्वेदनं कृत्वा स्थापयेदतियत्नतः ॥ कर पुन: टिकिया बनाकर सुखा लें और उन्हें उक्ता भैरवनायेन स्यात्पशामृतपर्पटी। । उपरोक्त सोनामक्खी आदि पांचों चीजों के ५-५ म्योपाज्यसहिता लीडा गुलाबीजेन सम्मिता॥ तोले मिश्रित चूर्णके मध्यमें रखकर शराव सम्पुट सर्वलक्षणसम्पूर्ण विनिहन्ति क्षयाऽऽमयम् । करें और गजपुट में फूंक दें । इसी प्रकार इन पांच भासं कासं विसूचीज प्रमेहमुदराऽऽमयान् ॥ चीज़ोंके चूर्ण के साथ कुल मिलाकर २० पुट दें। अरोपका दुःसाध्यं प्रसेकं छर्दिहन्दम् । अब १० कर्ष (१२॥ तोले ) शुद्ध पारद सर्वज गुदरोगा शूलकुष्ठान्यशेषतः॥ और २० कर्ष शुद्ध गन्धककी कजली बनाकर पातज्वरश विड़पन्ध ग्रहणी कफनान्गदान् । उसे लोहे को कढ़ाई में (जरासा घी चुपड़कर) एकत्रिदोषोत्यान् रोगानन्यान्महागदान ॥ बेरीके कोयलेकी मन्दाग्नि पर- पिपलावें।
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