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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चूर्णप्रकरणम् ] - तृतीयो भागः। [ २९९] खुरासानी अजवायनके चूर्णको गुड़में मिला- | (५९३४) पारिभद्रादिक्षारः कर प्रातःकाल बासी पानीके साथ सेवन करनेसे | (ग. नि. । अर्श.) उदरस्थ कृमि शीघ्र ही निकल जाते हैं। पारिभद्रं सुधां दन्तीं ककुभं समयूरकम् । (३९३२) पारावतपुरीषयोगः गवाश्वमहिषाणां च मूत्राण्यथ समाहरेत् ॥ भस्मीकृत्य च तं क्षारं युक्त्या मधेन पाययेत् । (रा. मा. । स्त्रीरो.; वै. म. । पटल १३; ग. श्लेष्माशीसि प्रशमयेच्छयथु पाण्डुतामपि ॥ नि. । गर्भस्राव. ) रक्तजेष्वपि चास्सुि क्षीरेणाजेन शस्यते । योपितः सततं यस्या गर्भवत्याः स्रवत्यमुक् । | ऋतुं चाप्ययनं वाऽपि पिबेन्मासमथापि वा ।। पारावत्पुरीपं तो पायपेत्तण्डुलाम्भसा ।। __ पारिभद्र (नीम या फरहद ) की छाल, यदि गर्भवती स्त्रीको रक्तस्राव होता हो तो सेंड ( सेहुंड-थोहर ), दन्तीमूल, अर्जुनकी छाल उसे तण्डुलोदक ( चावलेांका पानी । बनानेकी और चिरचिटा समान भाग लेकर कूट लें । फिर विधि भा. भै. र. भाग १ पृ. ३५३ पर देखिये ।) इस चूर्णके बराबर गोमूत्र, घोड़ीका मूत्र और के साथ कबूतरको विष्ठाका चूर्ण पिलाना चाहिये। | भैसका मूत्र लेकर, उस चूर्ण और इन सब मूत्रों (३९३३) पाराशीयादिचूर्णम् को मजबूत हांडीमें भरकर उसका मुंह बंद करके ( भै. र. । क्रिमिरो.; र. र. । बालरो. ) उस पर कपड़ मिट्टी करदें । अब इस हांडीको चूल्हे पर चढ़ाकर इतना पकायें कि सब चीजें पाराशीययमानिकाधनकणाशृङ्गीविडङ्गारुणा- | चूर्ण श्लक्ष्णतरं विलीढमपि तत् क्षौद्रेण संयो जलकर राख हो जायं । __इसके बाद हांडीके स्वांग शीतल होने पर कासं नाशयति ज्वरश्च जयति प्रौढातिसारं उसमें से औषधको निकालकर पीस लें । जयेच्छदि मर्दयति क्रिमिन्तु नियतं कोणस्थ- इसे मद्यके साथ सेवन करनेसे कफज बवा मन्मलयेत ॥| सीर, शोथ और पाण्डु का नाश होता है । बकरी खुरासानी अजवायन, नागरमोथा, पीपल, के दूधके साथ देनेसे रक्तार्श भी नष्ट हो जाती है। काकड़ासिंगी, बायबिडंग और अतीस समान भाग इसे २ मास, ६ मास या १ मास तक लेकर अत्यन्त महीन चूर्ण बनावें । ( आवश्यकतानुसार ) सेवन करना चाहिये । इसे शहदके साथ सेवन करनेसे खांसी, | (३९३५) पावपिप्पलादियोगः ज्वर, प्रबल अतिसार और छर्दिका नाश होता है। | (यो. र.; भा. प्र.; वृ. नि. र. । स्त्रीरो. ) इसके सेवनसे उदरस्थ क्रिमि तो अवश्य ही निर्मूल | याऽवला पिबति पार्श्वपिप्पलं हो जाते हैं। जीरकेण सहितं हिताशना। यादिचूर्णम् जितम् ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020116
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1928
Total Pages773
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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