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चूर्णप्रकरणम् ]
- तृतीयो भागः।
[ २९९]
खुरासानी अजवायनके चूर्णको गुड़में मिला- | (५९३४) पारिभद्रादिक्षारः कर प्रातःकाल बासी पानीके साथ सेवन करनेसे |
(ग. नि. । अर्श.) उदरस्थ कृमि शीघ्र ही निकल जाते हैं। पारिभद्रं सुधां दन्तीं ककुभं समयूरकम् । (३९३२) पारावतपुरीषयोगः
गवाश्वमहिषाणां च मूत्राण्यथ समाहरेत् ॥
भस्मीकृत्य च तं क्षारं युक्त्या मधेन पाययेत् । (रा. मा. । स्त्रीरो.; वै. म. । पटल १३; ग.
श्लेष्माशीसि प्रशमयेच्छयथु पाण्डुतामपि ॥ नि. । गर्भस्राव. )
रक्तजेष्वपि चास्सुि क्षीरेणाजेन शस्यते । योपितः सततं यस्या गर्भवत्याः स्रवत्यमुक् ।
| ऋतुं चाप्ययनं वाऽपि पिबेन्मासमथापि वा ।। पारावत्पुरीपं तो पायपेत्तण्डुलाम्भसा ।।
__ पारिभद्र (नीम या फरहद ) की छाल, यदि गर्भवती स्त्रीको रक्तस्राव होता हो तो सेंड ( सेहुंड-थोहर ), दन्तीमूल, अर्जुनकी छाल उसे तण्डुलोदक ( चावलेांका पानी । बनानेकी
और चिरचिटा समान भाग लेकर कूट लें । फिर विधि भा. भै. र. भाग १ पृ. ३५३ पर देखिये ।)
इस चूर्णके बराबर गोमूत्र, घोड़ीका मूत्र और के साथ कबूतरको विष्ठाका चूर्ण पिलाना चाहिये।
| भैसका मूत्र लेकर, उस चूर्ण और इन सब मूत्रों (३९३३) पाराशीयादिचूर्णम् को मजबूत हांडीमें भरकर उसका मुंह बंद करके ( भै. र. । क्रिमिरो.; र. र. । बालरो. )
उस पर कपड़ मिट्टी करदें । अब इस हांडीको
चूल्हे पर चढ़ाकर इतना पकायें कि सब चीजें पाराशीययमानिकाधनकणाशृङ्गीविडङ्गारुणा- | चूर्ण श्लक्ष्णतरं विलीढमपि तत् क्षौद्रेण संयो
जलकर राख हो जायं ।
__इसके बाद हांडीके स्वांग शीतल होने पर कासं नाशयति ज्वरश्च जयति प्रौढातिसारं उसमें से औषधको निकालकर पीस लें । जयेच्छदि मर्दयति क्रिमिन्तु नियतं कोणस्थ- इसे मद्यके साथ सेवन करनेसे कफज बवा
मन्मलयेत ॥| सीर, शोथ और पाण्डु का नाश होता है । बकरी खुरासानी अजवायन, नागरमोथा, पीपल,
के दूधके साथ देनेसे रक्तार्श भी नष्ट हो जाती है। काकड़ासिंगी, बायबिडंग और अतीस समान भाग
इसे २ मास, ६ मास या १ मास तक लेकर अत्यन्त महीन चूर्ण बनावें ।
( आवश्यकतानुसार ) सेवन करना चाहिये । इसे शहदके साथ सेवन करनेसे खांसी,
| (३९३५) पावपिप्पलादियोगः ज्वर, प्रबल अतिसार और छर्दिका नाश होता है।
| (यो. र.; भा. प्र.; वृ. नि. र. । स्त्रीरो. ) इसके सेवनसे उदरस्थ क्रिमि तो अवश्य ही निर्मूल | याऽवला पिबति पार्श्वपिप्पलं हो जाते हैं।
जीरकेण सहितं हिताशना।
यादिचूर्णम्
जितम् ।।
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