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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः।
[धकारादि
अथ धकारादिकषायप्रकरणम्
(३२३५) धत्तूरयोगः
धव, अर्जुन, कदम्ब, जामन और आमकी (रा. मा. । विष.)
छाल तथा मनसिल, और कसीसके काथमें सेंधा उन्मत्तकस्य स्वरसं पयश्च
नमक, गुड़ और घी मिलाकर पीनेसे क्षतज खांसी
नष्ट होती है। सर्पिगुडश्चेति विमिश्रितानि । पिबेत्पलद्वन्द्वमितानि यत्ना
(३२३८) धवादिकाथः (३) दुन्मत्तकौलेयकदष्टगात्रः॥
(हा. सं. । स्था. ३ अ. ३१)
धवार्जुनकदम्बानां बदरी खदिरशिंशपे । धतूरेका स्वरस, दूध, घी और गुड़ २-२ पल (१०-१० तोले ) लेकर सबको एकत्र
पारिभद्रकमेतेषां मेहनस्य प्रधावनम् ॥ मिला कर पिलाने से उन्मत्त कुत्तेका विष नष्ट
| अर्जुनस्य कदम्बस्य टिण्टुकी वान्तरत्वचा। होता है।
पाके पूयविशोधार्थ मेहनस्य प्रशस्यते ॥
धव, अर्जुन, कदम्ब, बेरी, खैर, सीसम और (३२३६) धवादिकाथः (१) (हा. सं. । स्था. ३ अ. ४)
पारिभद्र ( नीम या फरहद ) की छालके काथसे
या अर्जुन, कदम्ब और टेंटुकी अन्तर्जाल के क्वाथसे धवार्जुनकदम्बानां शिरीषबदरीसह । निकाथ्य पानमामघ्नं विषूच्याः शूलवारणम् ।।।
धोनेसे लिङ्गका घाव शुद्ध होता है । धव, अर्जुन, कदम्ब, सिरस और बेरीकी
(३२३९) धातक्यादिक्काथ: (१) छालका काथ पीनेसे आम और विसूचिका का
(वै. जी. । वि. १)
विषममपि हरत्यसौ कषायो शूल शान्त होता है।
मधुमधुरो मदिरामृताशिवानाम् । (३२३७) धवादिक्काथः (२)
| अहमिव सततं तत्र प्रकोपं (हा. सं. । स्था. ३ अध्या. १२)
चरणसरोरुहयो ठन्हठेन ।। धवार्जुनकदम्बानां जम्ब्बाम्रत्वक् च तत्समम् । धायके फूल, गिलोय और आमलेके काथको मनःशिला सकासीसं कायं कृत्वा ससैन्धवम्॥ शहदसे मीठा करके पीनेसे विषम ज्वर अवश्य नष्ट गुडेन सर्पिषा युक्तं हन्ति कासं क्षतोद्भवम् ।। | हो जाता है ।
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