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मिश्रमकरणम्
तृतीयो भागः।
[१२१]
मुख पाकमें दारुहल्दी, मुलैठी, हर, और देवदाली (बिंडाल), चीता और इन्द्रायण चमेलीके पत्तोंके काथमें शहद मिलाकर उसके की जड़ समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकुल्ले करने और पीपलकी छाल तथा पत्तोंके चूर्ण कर गुटिका ( अंगुठे के समान वर्ति) बनावें । को शहद में मिलाकर उसका लेप करना चाहिये। या इन्द्रायण के फलोंकी वर्ति बनावें। इसे गुदामें (३२३२) दाादिघन:
रखनेसे बवासीरके मस्से नष्ट हो जाते हैं। (वा. भ. । उ. स्था. अ. २२) (३२३४) द्राक्षाचगदः स्वरसः कथितो दाा घनीभूतः सगैरिकः।
(व. से. । विषा.) आस्यस्थः समधुर्वापाकनाडीव्रणापहः॥
द्राक्षाश्वगन्धानगवृत्तिका च दारुहल्दीके स्वरसको पकाकर गाढ़ा करलें
श्वेता च पिष्टा सदृशैः स्वभागैः। और फिर उसमें गेरुका चूर्ण मिलाकर सुरक्षित
देयो विभागः सुरसाछदस्य
कपित्थबिल्वादपि दाडिमाश्च ॥ रक्खें।
एषोऽगद क्षौद्रयुतो निहन्ति इसमें से. जरासा शहदमें मिलाकर मुंहमें
विशेषतो मण्डलिनां विषाणि ॥ रखनेसे मुखपाक और मुखका नाड़ीत्रण (नासूर) ।
दाख ( मुनक्का ), असगन्ध, सल्लकी वृक्षका नष्ट होता है।
गोंद, दूधिया बच ( या सफेद कोयल), तुलसीके (३२३३) देवदाल्याचा गुटिका पत्ते, कैथके पत्ते, बेलके पत्ते और अनारके पत्ते (ग. नि. । अर्श.)
समान भाग लेकर चूर्ण करें। गुटिका कृता गुदे सा सुरदाल्यग्नीन्द्रवारुणीमूलैः इसे शहदके साथ खिलानेसे समस्त प्रकारके अशेः शातनमन्तःफलमथवा शक्रवारुण्या॥ विष विशेषतः माडली सर्पका विष नष्ट होता है।
इति दकारादिमिश्रप्रकरणम् ।
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